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________________ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान हस्तिनापुरके लिए शकुन्तलाके प्रस्थानके समय कण्व समीपस्थ तपोवनके वृक्षोंसे उसके गमन करनेकी अनुमति मांगते हैं । इस प्रसंगमें उनके वार्तालापमें कार्य-कारण भावकी योजना उपलब्ध होती है । ऋषि वृक्षोंको सम्बोधन कर कहते हैं कि आभूषण प्रिय होनेपर भी इस शकुन्तलाने स्नेहके कारण मण्डनार्थ भी पल्लवोंको नहीं तोड़ा; न कभी इसने वृक्षोंको जलसे सिञ्चन किये बिना जल ही पिया है । अधिक क्या पुष्पोद्गमके समय यह पुत्र-प्राप्ति जैसा उत्सव सम्पन्न करती थी, आज यही शकुन्तला पतिगृह जा रही है, आप सब अपनी स्वीकृति दीजिए। पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या नादत्ते प्रियमण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम् । आद्ये वः कुसुमप्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सवः सेयं याति शकुन्तला पतिगृहं सर्वैरनुज्ञायताम् ॥' इस पद्यमें स्नेह कारण है और मण्डनार्थ भी पल्लवोंका न तोड़ना कार्य है तथा स्नेह सद्भावसे ही जलसिञ्चन, उत्सव सम्पादन आदि भी घटित हुए हैं। ___महर्षि कण्वको नवमालिकाको आम्रसे मिलते हुए और शकुन्तलाको निजपतिको प्राप्त करते हुए देखकर परम सन्तोष होता है । वे नवमालिका और शकुन्तलाकी ओरसे निश्चित हो जाते हैं । इस सन्दर्भ में 'भर्तारमात्मसदृशं सुकृतर्गता' कारण है, इस कारणसे महर्पिका 'वीतचिन्तः' रूपी कार्य उत्पन्न होता है। इस प्रकारको कार्यकारण योजनासे कविने ऋषिकी संकल्प पूर्ति पर उत्पन्न हुए हर्षको सूचित किया है सङ्कल्पितं प्रथममेव मया तवार्थे भर्तारमात्मसदृशं सुकृतैर्गता त्वम् ।। चूतेन संश्रितवती नवमालिकेयमस्यामहं त्वयि च सम्प्रति वीतचिन्तः ।। शकुन्तला आश्रमसे प्रस्थान करते समय रुदन करती है । महर्षि कण्व उसे धैर्य बंधाते हैं. और नतोन्नत भूमिमें सावधानीपूर्वक चलनेका निर्देश करते हैं उत्पक्ष्मणोनयनयोरुपरुद्धवृत्ति बाष्पं कुरु स्थिरतया विरतानुबन्धम् । अस्मिन्नलक्षितनतोन्नतभूभिभागे मार्गे पदानि खलु ते विषमीभवन्ति ।। उपर्युक्त पद्यमें 'स्थिरता' कारण है और 'आँसुओंका रोकना' कार्य है। उत्तरार्द्ध में नतोन्नत भूमि भागका अलक्षित होना कारण है और मार्गमें पदोंका विषम होना कार्य है। महर्षि कण्वका शोक उटज द्वारपर बल्यर्थ रोपित नीवारको देखकर अधिक बढ़ जाता है। यहाँ कविने नीवारबलिका अवलोकन कारणके रूपमें और शोकवृद्धिको कार्यके रूपमें चित्रित किया है। शममेष्यति मम शोकः कथं नु वत्से त्वया रचितपूर्वम् । उटजद्वारविरूढं नीवारबलिं . विलोकयतः॥ १. वही ४९ • २. वही ४।१३ ३. वही ४।१५. . .. ४. वही ४।२१ ..
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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