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________________ जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा कामव्यथाके कारण राजा दुष्यन्तको अवस्था बिगड़ती जाती है । पुष्पधन्वा कामदेव और शीतल रश्मियोंसे युक्त चन्द्रमा भी तापहारक होनेके स्थानपर सन्ताप उत्पन्न कर रहे है । वह उक्त दोनोंको उपालम्भ देता हुआ कहता है तव कुसुमशरत्वं शीतरश्मित्वमिन्दोद्वैयमिदमयथार्थ दृश्यते मद्विधेषु । विसृजति हिमगर्भरग्निमिन्दुर्मयूखैस्त्वमपि कुसुमबाणान् वज्रसारीकरोषि ।' इस पद्यमें 'इन्दुः हिमगर्भः मयूखैः अग्नि' विसृजति और त्वमपि कुसुमबाणान् वज्रसारीकरोषी । कारण हैं, इस कारण द्वारा 'कुसुमशरत्व' और 'शीतरश्मित्व' का अयथार्थत्व रूप कार्य दिखलाया गया है । यह कार्यकारण भाव योजना कामव्यथाकी तीव्रताको अभिव्यक्त करती है। दुष्यन्तके प्रेमके कारण शकुन्तलाको कामव्यथा कष्ट पहुँचा रही है, इस व्यथाके कारण उसका शरीर कृश हो गया है, कान्ति पीत वर्णकी हो गयी है और वह अहमिश क्षीण होती जा रही है । कविने यहाँ ‘मदनक्लिष्टा' कारण द्वारा क्षामकपोल, काठिन्यमुक्तस्तन, प्रकामविनतावंस एवं पाण्डु छविरूप कार्यका वर्णन तो किया ही है, साथ ही उसके शोचत्वरूप कार्यके लिए मदनक्लिष्टत्वरूप कारणका निर्देश किया है। कविने सहजानुभूतिको अभिव्यक्ति कार्य-कारण सम्बन्धके वातावरणमें ही प्रस्तुत की है। क्षामक्षामकपोलमाननमुरःकाठिन्यमुक्तस्तनं मध्यः क्लान्ततरः प्रकामविनतावंसौ छविः पाण्डुरा । शोच्या च प्रियदर्शना च मदनक्लिष्टेयमालख्यते पत्राणामिव शोषणेन मरुता स्पृष्टा लता माधवी ॥२ राजा दुष्यन्त मदन व्यथित शकुन्तलासे कहता है कि तुम धूपमें इस सन्तप्त शरीरको लेकर कहाँ जाओगी? इस सन्दर्भमें 'परिबाधापेलवैरङ्गः' कारण है, इस कारणसे गमनाभावरूप कार्य उत्पन्न होता है, अतएव 'कथं गमिष्यसि' को उक्त कारणका कार्य माना जायगा । इस प्रकार कार्यकारणकी योजना शकुन्तलाकी व्यथाको अभिव्यक्त कर रही है । महाकवि कालिदासने सहज कल्पनाका सम्बन्ध तकके साथ जोड़ दिया है उत्सृज्य कुसुमशयनं नलिनीदलकल्पितस्तनावरणम् । कथमातपे गमिष्यसि परिबाधापेलवरङ्गः ॥ कण्वाश्रममें सन्ध्याके समय राक्षसोंकी छाया यज्ञवेदीको व्याप्त कर लेती है, जिससे वहाँ भयका संचार होता है। महाकवि कालिदासने यहाँ राक्षसोंकी छायाके कारण और 'भयमादधाना'को कार्यरूपमें चित्रित किया है । यथा सायंतने सवनकमणि संप्रवृत्ते वेदि हुताशनवती परितः प्रयस्ताः । छायाश्चरन्ति बहुधा भयमादधानाः सन्ध्यापयोदकपिशाः पिशिताशनानाम् ॥ १. वही ३।३। २. वही ३७। ___३. वही ३।२०। ४. वही ३१२५ ।
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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