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________________ जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा मनोहर वस्तुओंको देखकर और मधुर शब्दोंको सुनकर प्रसन्नचित्त व्यक्तिके उत्कण्ठित हो जानेका वर्णन कार्य-कारण भाव युक्त है । अक्लोकन और श्रवण कारण हैं, इनसे सुखान्वित व्यक्तिका उत्कण्ठित होना कार्य है । कविने बताया हैरम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान् पर्युत्सुको भवति यत्सुखितोऽपि जन्तुः । तच्चेतसा स्मरति नूनमबोधपूर्व' भावस्थिराणि जननान्तरसौहृदानि ।। वैतालिक राजा दुष्यन्तको प्रशंसा करता हुआ कहता है कि आप सर्वदा प्रजाकल्याणमें संलग्न रहते हैं, आपका कार्यव्यापार ही इस प्रकारका है, जिससे प्रजाको सुख-शान्तिकी प्राप्ति होती है । वृक्ष अपने सिरपर तीव्र आतापको सहन कर छायाश्रितोंके सन्तापको दूर करता है । इस प्रसंगमें छाया कारण और तापशान्ति कार्य है। राजा दुष्यन्तका कार्याव्यापार कारण और प्रजाकल्याण कार्य है । यथा स्वसुखनिरभिलाषः खिद्यसे लोकहेतोः प्रतिदिनमथवा ते वृत्तिरेवंविधैव । अनुभवति हि मूर्ना पादपस्तीवमुष्णं शमयति परितापं छायया सश्रितानाम् । राजा दुष्यन्त हस्तिनापुरमें शकुन्तलाके अवगुण्ठनवती होनेके कारण उसके अपरिस्फुटलावण्यका दर्शन करता है । इस प्रसंगमें कार्य-कारण भी योजना प्रभावक रूपमें घटित हुई है । इसीप्रकार फलागम रूप कारणद्वारा वृक्षोंके नम्र होने रूप कार्यका, नवाम्बु के कारण घनोंके झुकने रूप कार्यका और समृद्धिको प्राप्तकर सज्जन पुरुषोंके अनुद्धत होने रूप कार्यका कविने वर्णन किया है । ये दोनों ही पद्य कार्य-कारण भावकी योजनाद्वारा काव्य सौंदर्यका सृजन करते हैं कास्विदवगुण्ठनवती नातिपरिस्फुटशरीरलावण्या।। मध्ये तपोधनानां किसलयमिव पाण्डुपत्राणाम् ।। भवन्ति नम्रास्तरवः फलागमैनवाम्बुभिर्दूरविलम्बिनो घनाः। अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः स्वभाव एवेष परोपकारिणाम् ।। जब दुष्यन्त शकुन्तलाका प्रत्याख्यान करता है, तो शकुंतलाके अकृत्रिम क्रोधके कारण उसके मनमें सन्देह उत्पन्न हो जाता है । वह सोचता है - "सन्दिग्धबुद्धि मां कुर्वन्नकैतव इवास्याः कोपो लक्ष्यते""। इस चिन्तनमे शकुंतलाका क्रोध कारण और सन्देहकी उत्पत्ति कार्य है। इसी क्रममें शकुन्तलाकी लाल आँखें कार्य हैं और उसका अत्यन्त क्रोध कारण है । इस कार्यकारण भावकी योजना द्वारा शकुन्तला और दुष्यन्तके चरित्रपर भी प्रकाश पड़ता है । मय्येव विस्मरणदारुणचित्तवृत्ती वृत्तं रहः प्रणयमप्रतिपद्यमाने । भेदाभ्रुवोः कुटिलयोरतिलोहिताक्ष्या भग्नं शरासनमिवातिरुषा स्मरस्य॥ १. शाकुन्तल ५।२; २. वही २१७ ३. वही ५।१३ ; ४. वही ५।१२ ५. वही २२ पद्य के अनन्तरवाला गद्य, पृ० १३३ ६. वही ५।२३ ,
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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