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________________ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान यहाँ मृगयाको व्यसनाभाव कहना कार्य है, इस कार्यकी सिद्धि पद्यमें कथित समस्त कारणोंसे हुई है। महाकवि कालिदास कार्यकारणभावकी योजनाकर दुष्यन्तके समस्त पृथ्वीके सम्राट होनेमें किसी भी प्रकारका आश्चर्य व्यक्त नहीं करता। यतः देव-दानवोंके युद्धके अवसरपर देवोंकी रक्षा दुष्यन्तके प्रत्यञ्चा-युक्त धनुषके द्वारा ही सम्भव होती है । अतएव देवोंको उसके धनुषपर इन्द्रके वज्र के समान ही विश्वास है । कवि कहता है नेतच्चित्रं यदयमुदधिश्यामसोमां धरित्रीमेकः कृत्स्नां नगरपरिघप्रांशुबाहुभुनक्ति । आशसन्ते समितिषु सुरा बद्धवरा हि देत्य रस्याधिज्ये धनुषि विजयं पौरुहूते च वजे ॥ यहाँ अधिज्ये धनुषि कारण है, इस कारणद्वारा 'कृत्स्नामुदधिश्यामसीमां धरित्री भुनक्ति' कार्यकी उत्पत्ति हुई है । अतएव कार्य-कारण सम्बन्ध द्वारा नैतच्चित्रम्की सिद्धि की गयी है । दुष्यन्त ऋषियोंका निवेदन स्वीकारकर यज्ञरक्षाके लिए कण्वाश्रममें निवास करनेकी सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर देता है। निवेदन करनेवाले ऋषि हेतु प्रदर्शन पूर्वक राजाकी स्वीकारोक्तिको प्रशंसा करते हैं। वे कहते हैं कि अपने पूर्वजोंका अनुकरण करनेवाले आपका यह कार्य अत्यन्त रचित है, क्योंकि पुरुवंशी राजा आपत्तिग्रस्तोंकी रक्षाका व्रतधारण किये हुए है। यथा अनुकारिणि पूर्वेषां युक्तरूपमिदं त्वयि । आपन्नाभयसत्रेषु दीक्षिताः खलु पौरवाः ॥ इस पद्यमें 'आपन्नाभयसत्रेषु पौरवाः दोक्षिताः' कारण है, इस कारणसे 'त्वयि इदं युक्तरूपम्' कार्यकी उत्पत्ति हुई है। अतः कार्य-कारण भाव संबंधसे दुष्यन्तकी वीरता और दृढ़ताको अभिव्यञ्जना की गयी है। ___ दुष्यन्तको विदूषककी गम्भीरतापर विश्वास नहीं है। उसके मनमें सन्देह है कि कहीं यह चञ्चल ब्राह्मण मेरे इस प्रेम व्यापारको अन्तःपुरकी स्त्रियोंसे जाकर न कह दे । अतः वह यथार्थताको छिपाता हुआ कहता है-मित्र ! ऋषियोंके प्रति आदरभावके कारण मैं इस आश्रममें कुछ दिनों तक और निवास करूंगा, तपस्वी कन्यापर आसक्तिके कारण नहीं । कविने राजा द्वारा इस प्रसङ्गमें शकुन्तलाके विकाराभावरूप कारणसे प्रेम व्यापाररूप कार्यका निषेध कराया है । यतः विकार सद्भावरूप कारणसे प्रेमव्यापाररूप कार्यका अस्तित्व सिद्ध होता है। अविनाभावरूप व्याप्ति भी विकारसद्भाव और प्रेमव्यापाररूप कार्यके साथ वर्तमान है । अन्वय और व्यतिरेक रूप दोनों ही प्रकारको व्याप्ति भी यहाँ घटित होती है। क्व वयं क्व परोक्षमन्मथो, मृगशावैः सममेधितो जनः । परिहासविजल्पितं सखे, परमार्थेन न गृह्यतां वचः॥ १. अभिज्ञानशाकुन्तल एम० आर० काले द्वारा सम्पादित, सन् १९३४ ई० २।१५। २. वही २।१६। ३. वही २।१८।
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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