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________________ जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा भव हृदय साभिलाषं सम्प्रति सन्दैहनिर्णयोः जातः । - आशङ्कसे यदग्नि तदिदं स्पर्शक्षमं रत्नम् ॥' यहाँ सन्देह निर्णय होना कारण है और हृदयका साभिलाष होना कार्य है। इस कार्य कारणभाव द्वारा राजा दुष्यन्तको मानसिक स्थितिका चित्रण किया है । वृक्षसिञ्चनमें संलग्न शकुन्तला क्लान्त दिखलाई पड़ती है । प्रियंवदा उससे दो वृक्षोंका सिञ्चन कराती है, जिससे घड़े द्वारा जल देनेके कारण उसके हाथ कन्धेपरसे झुक जाते हैं, हथेलियाँ अत्यधिक रक्त हो जाती हैं, लम्बे-लम्बे श्वास चलनेसे स्तन कम्पित होने लगते हैं, वेणीबन्धन शिथिल हो जाता है और मुँह पर पसीनेकी बूंदें व्याप्त हो जाती हैं । इस प्रसंगमें कविने कार्य-कारणभावकी योजना की है। स्रस्तांसावतिमात्रलोहिततलौ बाह घटोत्क्षेपणादद्यापि स्तनवेपथु जनयति श्वासः प्रमाणाधिकः । बद्धं कर्णशिरीषरोधि वदने धर्माम्भसां जालकम् , बन्धे स्रसिनि चैकहस्तयमिताः पर्याकुला मूर्धजाः ॥२ यहाँ घटोत्क्षेपण कारणसे 'लोहिततलौ', 'स्रस्तांसौ बाहू', 'प्रमाणाधिकश्वासः', 'स्तनवेपथु', धर्माम्भसां जालकम्' एवं 'बन्धे संसिनि मूर्धजाः'' रूप कार्योंको उत्पत्ति दिखलाई गई है । इस कार्य-कारण सम्बन्ध द्वारा कविने शकुन्तलाकी परिश्रान्तता व्यक्त की है। दुष्यन्तके मनमें शकुन्तलाका स्मरण हो आता है, अतः मृगयासे उसका मन विरक्त हो जाता है । यहाँ शकुन्तलाका स्मरण कारण और मृगया-विरक्ति कार्य है। वह उदासीन मनसे विदूषक से कहता है न नमयितुमधिज्यमस्मि शक्तो, धनुरिदमाहितसायकं मृगेषु । सहवसतिमुपेत्य यः प्रियायाः कृत इव मुग्धविलोकितोपदेशः ॥ प्रस्तुत पद्य में प्रिया शकुन्तलाके सहवास और उसे सुन्दर कटाक्षपात सिखलानेके कारण हिरण राजा दुष्यन्तकी सहानुभतिके पात्र बन गये हैं, इस कारण वह उनपर बाण चलाना नहीं चाहता है । अतः यहाँ पद्य के उत्तरार्धमें कथित सहानुभूति कारण है और बाण चलानेका त्याग कार्य है । इस कार्य-कारणभावसे कविने प्रियके संयोगसे वस्तुके प्रिय बन जानेकी कल्पनाका समर्थन किया है। कविने मृगयारूप कारणसे एक साथ कई कार्योंकी उत्पत्तिका दिग्दर्शन कराया है। यथा मेदश्छेदकृशोदरं लघु भवत्युत्थानयोग्यं वपुः सत्त्वानामपि लक्ष्यते विकृतिमच्चित्तं भयक्रोधयोः । उत्कर्षः स च धन्विनां यदिषवः सिध्यन्ति लक्ष्ये चले , मिथ्येव व्यसनं वदन्ति मृगयामिदृग्विनोदः कुतः ॥ १. वही ११२८ २. अभिज्ञानशाकुन्तलम्-सम्पादक एम० आर० काले, प्र० गोपालनारायण कम्पनी, बम्बई सन् १९३४ ई०, ११२७ ३, वही २।३; ४. वही २५
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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