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________________ भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान सकल शैलीमें उलझानेका आयास अधिक है । आरम्भमें हो संस्कृत की छटा दिखलाते हुए कहा है"इह हि खलु सकलकलङ्कविकलकेवलावलोकनविमललोचनलोकितलोकपरम गुरुवीर जिनेश्वररुचिरमुख सरसीरुहसमुत्पन्नसरस्वती सरसानवरतस्मरणावलोकनसल्लापदत्तचित्तवृत्तिः राजाधिराजपरमेश्वरस्य हिमशीतलस्य महाराजस्य महास्थानमध्ये निष्ठुरकष्टवादसौष्ठवदुष्टसौगतान् चटुलघटवादादिपटिष्ठतयातारादेवताधिष्ठितदुर्घटघटवादविजयेन विघटय्य तेन राज्ञा सभ्यैस्सभासदैश्च परिप्राप्तजयप्रशस्तिः सकलतार्किकचूडामणिमरीचिमे चकित रुचिररुचिचकचकायमानचरणनखरो भगवान् महाकलङ्कदेवो विश्वविद्वन्मण्डलहृदया ह्लादियुक्तिशास्त्रेण जगत्सद्धर्मप्रभावमबबूत्तमाम् ।” ४० इस उद्धरण से स्पष्ट है कि इस टीकामें पूर्णतया पाण्डित्य प्रदर्शित किया है। विवेचन करते हुए बीच-बीच में प्रश्नोत्तर शैलीका भी आलम्बन लिया गया है। परिभाषाओंका स्पष्टीकरण भी उलझे हुए ढंगसे किया है । शब्दजाल इतना अधिक हैं, जिससे वास्तविक विषयछिप-सा गया है । अर्थप्रकाशिकाकी शैलीसे इसकी शैली बिल्कुल भिन्न है । यद्यपि अलंकार ध्वन्यथका प्रयोग दोनोंमें समानरूपसे हुआ है । आलङ्कारिक पाण्डित्य दिखलाते हुए लिखा है - " परीक्षामुखमादर्श मितिरूपकालंकारेणालंकृतत्वात्तमलङ्कारं तदेवं रूपयतीत्यनेनाभिव्यज्य उपमैव तिरोभूतभेदा रूपकमिष्यत इति रूपकालङ्कारलक्षणसद्भावस्तदलङ्कारतिरोहितामुपमां दर्शयति 1 भाषा प्रौढ़ और परिमार्जित है । न्यायशास्त्रमें भी काव्यशास्त्रका आनन्द प्राप्त होता है । कई स्थानों पर तो गद्यमें उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक और कार्व्यालंग अलंकारोंकी झड़ी लगा । ऐसा मालूम होता है कि टीकाकार यह भूल ही गया है कि उसे प्रमेयरत्नमालाका स्पष्टीकरण करना है, अतः अनेक स्थानों पर व्यर्थके पाण्डित्य प्रदर्शनमें समय लगाया है । दी विषय विवेचन - विषय विवेचनकी दृष्टिसे दो-चार स्थलों पर विशेषता पायी जाती है । इस पीनकाय पुस्तक में प्रमाण और प्रामाण्य, उत्पत्ति और ज्ञप्ति, अर्थापत्ति और अनुमान, उपमान और प्रत्यभिज्ञान, आदिके अन्तरोंका अच्छा स्पष्टीकरण किया है। विषयोंके विश्लेषण के लिए जैनागमके प्रमाण स्थान-स्थान पर उद्धृत किये गये हैं । बन्ध व्यवस्थाका निरूपण करते हुए बताया है - " जहण वज्जे इत्युक्तत्वात् तेनैकगुणस्य स्निग्धस्य रूक्षस्य वाणोः परेण स्निग्धक्षेण वैकगुणेन द्वित्रिसंखेयासंखेयानन्तगुणेन वाणुना बन्धो नास्ति । तथा द्वयादिभिरपि परमाणुभिर्द्वयादि गुणैरेकगुणैश्च न बन्धः । ततो जघन्यवर्णानामेव द्विगुणादिकानामेव तुल्यजातीयानां चेति बन्धः । तद्यथा द्विगुणस्निग्धस्य परमाणोरेकगुणस्निग्धेन द्वित्रिगुणस्निग्धेन वा नास्ति सम्बन्धः । चतुर्गुणस्निग्धे नत्वस्ति सम्बन्धः । तस्यैव पुनद्वगुणस्निग्धस्य पंचगुणस्निग्धेन षट्सप्ताष्टसंखेयासंखेयानन्तगुणस्निग्धेन च बन्धो नास्ति । एवं त्रिगुणस्निग्धस्य पञ्चगुणस्निग्धेन बन्धोऽस्ति शेषः पूर्वोत्तरैर्न भवति"" । आदि इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक विषयको पर्याप्त विस्तार दिया गया है। परमतोंका निराकरण भी दृढता और पुष्ट तर्कोंसे किया है । परिमाण - इस ग्रन्थमें ३१० पत्र हैं, प्रतिपत्र एक ओर १० पंक्तियाँ और प्रतिपंक्ति २८ अक्षर हैं । १. न्यायमणिदीपिका पत्र २२९ - २३० २. न्यायमणिदीपिका पत्र २६१
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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