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________________ जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा रहित है । प्रत्येक कठिन विषयको स्पष्ट किया गया है । प्रसादगुण युक्त भाषा शैली पाठकोंका ध्यान सहज ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है । विषय विवेचन - यों तो प्रमेयरत्नमालामें निरूपित विषयोंकी विवेचना ही इसमें को गयी है तथा उन्हीं विषयोंका स्पष्टीकरण है, परन्तु तो भी इसमें कतिपय नवीन बातोंका समावेश टीकाकारने किया है । इस टीकामें स्वतन्त्ररूपसे उपन्यस्त विषयोंमें शून्याद्वैत तत्त्वोपप्लव, प्रमाणसम्प्लव, हेत्वाभासोंका विस्तृत विवेचन प्रभृति हैं। जिन सूत्रोंकी व्याख्या प्रमेय'रत्नमालाकारने संक्षेप और अस्पष्ट रूपसे की है, उन सूत्रोंकी व्याख्या इस टीकामें स्पष्ट और विस्तृत है । प्रमेयरत्नमाला में अन्यापोहका विषय कुछ क्लिष्ट है जिससे सर्वसाधारण उसे हृदयंगम नहीं कर पाते; परन्तु इस टीकामें इस विषयको इतने सरल और सीधे ढंगसे रखा है, जिससे एक साधारण न्यायका विद्यार्थी भी इसे समझ सकता है । यद्यपि विषय निरूपणमें जहाँ-तहाँ नव्यन्याय पद्धतिको अपनाया है, तो भी विषयको दुरूह नहीं होने दिया है । अनेकान्तात्मक वस्तुकी सिद्धिमें नवीन अनुमानोंका भी प्रयोग किया है तथा विस्तारपूर्वक उदाहरण देकर इस विषय को समझाया है । अन्यमतावलम्बियोंने जो अनेकान्त में आठ दूषण दिये हैं, उनका निराकरण भी बड़ी दृढ़ता और प्रौढ़ताके साथ किया है । उत्पाद - विनाश-ध्रौव्यात्मक वस्तुकी साधना कर ईश्वरके नित्यज्ञानका निराकरण किया है तथा सिद्ध किया है कि समस्त वस्तुओं की वास्तविक स्थिति त्रयात्मक दृष्टिसे देखने पर ही अवगत हो सकती है । संसारमें प्रतिक्षण जो परिवर्तन हो रहे हैं, उनका मूल कारण वस्तु स्वभाव है । द्रव्यदृष्टिसे वस्तु नित्य है और पर्यायदृष्टिसे अनित्य । ग्रन्थ परिमाण - --इस टीकामें कुल २४९ पृष्ठ हैं, प्रतिपृष्ठ ११ पंक्तियाँ और प्रतिपंक्ति १८ अक्षर हैं । पृष्ठकी लम्बाई ८|| इंच और चौड़ाई ६ ||| इंच है। इस टीकाकी अंतिम प्रशस्ति निम्न प्रकार है । ३९ “स्वस्तिश्रीमत्सुरासुरवृन्दवन्दितपादपाथोजश्रीमन्नेमीश्वरसमुत्पत्तिपवित्रीकृतगौतमगोत्र समुद्भूतार्हतद्विजश्रीब्रह्मसूरिशास्त्रितनुजश्री मद्दोर्बलिजिनदासशास्त्रिणामन्तेवासिना मेरुगिरिगोत्रोत्पन्न वि० विजयचन्द्राभिधेन जैनक्षत्रियेण लेखीति । भद्रं भूयात् । श्री श्री० श्री० श्री० " न्यायमणिदीपिका- -इस टीकाके रचयिता पंडिताचार्य चारुकीर्तिजी ही हैं; इसका उल्लेख अर्थप्रकाशिका में स्वयं ही आचार्यने किया है । यद्यपि प्रशस्तिसंग्रह में श्री पं० के० भुजबली शास्त्रीने इसके रचयिताका नाम अजितसेनाचार्य लिखा' है, और अपने इस कथन का समर्थन Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts in the Central Provinces and Berar by R B. Hiralal B. B. ( Appendices ) से किया है । पर इस कथनमें कोई सबल युक्ति नहीं है; अतः पूर्वोक्त प्रमाणोंके आधारपर इसके आरम्भ करनेवाले पंडिताचार्यं चारुकीर्ति और समाप्ति करनेवाले उनके शिष्य जनार्दन विजय हैं। इस टीकाकी समाप्ति शक संवत् १७६३ में हुई है । शैली और भाषा - इस टीकाकी शैली समस्यन्त है तथा प्रौढ़ गद्यात्मक है । रचयिता ने भाषा सम्बन्धी पाण्डित्यका प्रदर्शन सर्वत्र किया है । विषय निरूपणकी अपेक्षा श्रेष्ठ गद्य १. प्रशस्ति संग्रह — जैन सिद्धान्त भवन आरा, पृ० २ - ३
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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