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________________ जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा प्रमेयरत्नमालालंकार-इस टीकाके रचयिता पण्डिताचार्य चारुकीत्ति है। यह रचना अर्थप्रकाशिका टीकाको पूर्ववर्ती मालूम होती है। अनुमानतः शक संवत् १७ वीं शतीमें इसका प्रणयन हुआ है। इस टीकाकी शैली नव्यन्याय पद्धति पर है । अवच्छेदक, अवच्छिन, तन्निष्ठता आदि शब्दोंका प्रयोग स्थल-स्थल पर हुआ है । शैली स्वच्छ, प्रौढ़ और परिमार्जित है। नव्यन्याय पद्धति पर ब्रह्माद्वैतवादीका पूर्वपक्ष स्थापित करते हुए लिखा है-"ब्रह्माद्वैतवादिनस्तु-सत्तारूपं ब्रह्मव सर्वसाक्षात्कारि सर्वावच्छिन्नचैतन्याभिन्नत्वात् । चैतन्यस्य घटादिसाक्षात्कारित्वं हि घटावच्छिन्नचैतन्याभेद एव घटसाक्षात्कारकाले इन्द्रियद्वारा अन्तःकरणवृत्तघटादिविषयदेशतमनेन घटावच्छिन्नचैतन्यस्य रूपान्तःकरणावच्छिन्नचैतन्येनाभेदोत्पत्ते: एकदेशस्योपाध्योः भेदकत्वायोगात् गृहावच्छिन्नाकाशे घटावच्छिन्नाकाशे घटावच्छिन्नाकाशभेदवत् । मायावच्छिन्नचैतन्ये घटावच्छिन्नचैतन्याभिरूपं सर्वसाक्षात्कारित्वं च घटस्सन् पटस्सन् इत्यादि प्रत्येक्षेण गृह्यते'' इससे स्पष्ट है कि इस टीकामें नव्यन्यायकी शैलीपर विषय विवेचन किया गया है । विषयका स्पष्टीकरण जितना भी संभव हुआ है, किया है । विषय प्रमेयरत्नमालाका ही है, उसी में थोड़ा विस्तार किया गया है। परिमाण-इस पुस्तकमें कुल ३७६ पत्र हैं, प्रतिपत्र एक ओर ११ पक्तियाँ और प्रतिपंक्ति १७-१८ अक्षर हैं। प्रमेयकण्ठिका-इस टीकाके रचयिता शान्तिवर्णी हैं । इसका रचनाकाल १६-१७ वीं शतीके मध्यका है । ग्रन्थकी रचनाशैलीसे प्रतीत होता है कि यह प्रमेयरत्नमालापर आरम्भिक टीका है। यद्यपि विषयका स्पष्टीकरण पूर्णरूपसे नहीं हो पाया है, तो भी प्रकरणोंके स्पष्टीकरणका आयास प्रशंसनीय है । रचयिताके सम्बन्धमें इस टीकासे कुछ भी पता नहीं चलता है। शैली और भाषा-इस टीकाकी भाषा सरल है। शैली परिष्कृत और स्वच्छ है । विषयको समझानेका प्रयास भी किया गया है । रचयिताने स्वयं ही अपनी टोकाको प्रशंसा करते हए लिखा है प्रमेयकण्ठिका जीयात्प्रसिद्धानेकसद्गुणा। लसन्मार्तण्डसाम्राज्ययौवराज्यस्य कण्ठिका ।।। सनिष्कलङ्कां जनयन्तु तक वा बाधितर्को मम तर्करले। केनानिशं ब्रह्मकृतः कलङ्काश्चन्द्रस्य कि भूषणकारणं न । इससे स्पष्ट है कि इनकी टोकामें तर्क, युक्तियाँ और प्रमाणोंकी बहुलता है। शैलीमें प्रवाह और प्रसाद दोनों गुण हैं । प्रमेयरत्नमालामें आगत विषयोंका स्पष्टीकरण ही इस टीकामें किया गया है । टीकाकारने अपनी ओरसे नवीन विषयोंको उठानेका प्रयास नहीं किया है । परिणाम-इसमें कुल ३८ पत्र हैं, प्रत्येक पत्र ८॥"४७" है । १. प्रमेपरलमालालंकार पत्र १३९
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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