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________________ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयको अवदान हि स्वकर्त्तव्यत्वं हि प्रकारः" । विषयका स्पष्टीकरण इतने अच्छे ढंगसे किया है. जिससे मूल विषयको समझने में बड़ो सरलता होती है । बीच-बीचमें पूर्वपक्षोंको स्पष्ट करने के लिए मीमांसाश्लोकवात्तिक, सांख्यकारिका, न्यायसूत्र, छान्दोग्योपनिषद्, प्रमाणसंग्रह प्रभृति ग्रन्थोंके उद्धरण भी दिये हैं। निरूपण शैली एक अध्यापकके पाठनके तुल्य है । विषयका प्रवेश हृदय में सीधे और तीक्ष्णरूपसे होता है। उदाहरणार्थ 'प्रदीपवत्' सूत्रकी व्याख्या उद्धृत की जाती है । पाठक देखेंगे कि टीकाकारने अपने शब्दों में एक सुयोग्य व्युत्पन्न अध्यापकके समान विषयका स्पष्टीकरण किया है । पाठकोंकी सारी कठिनाइयाँ, जो प्रमेयरत्नमालाके अध्ययन में उत्पन्न होती थीं, दूर हो जाती हैं। ___ "यथा प्रदीपस्य प्रत्यक्षतां विना तत्प्रतिभासितस्यार्थस्य प्रत्यक्षता न घटते, तद्वत् ज्ञानस्य प्रत्यक्षतां विना विज्ञानविषयीभूतार्थस्य प्रत्यक्षता न घटत इति भावः । अत्र स्वव्यवसायात्मकत्वसमर्थकप्रकरणोपसंहारे प्रदीपदृष्टान्तं वदतो आचार्यस्यायमाशयो लभ्यते । ज्ञानं स्वतः प्रकाशकत्वाभाववत् प्रमेयत्वात्, घटादिवदिति नैय्यायिकाः । तदसत् तदीयपक्षस्य प्रत्यक्षानुमानबाधितत्वात् । तथा च प्रयोगः ज्ञानं स्वविषयीकरणे स्वभिन्नस्वसजातीयपदार्थान्तरानपेक्षं प्रत्यक्षविषयीभूतपदार्थसमवेतगुणत्वे सति अदृष्ट रूपसहकारिविशिष्टकारणत्वात् । प्रदीपनिष्ठभासुराकारवत्, यथा प्रदीपनिष्ठभासुराकारः प्रत्यक्षविषयीभूतो योऽर्थः प्रदीपादिरूपः तद्गुणोऽपि भवति । अदृष्टरूपसहकारिविशिष्टकरणमपि भवतीति कृत्वा स्वावभासने स्वसजातीयपदार्थान्तरं स्वभिन्नदीपादिकं नापेक्षते । तद्वत् ज्ञानमपि प्रत्यक्षविषयीभूतो योऽर्थः तद्गुणोऽपि भवति, अदृष्टानुयायिकरणं च भवति । स्वावभासने स्वातिरिक्त स्वसजातीयार्थान्तरं नापेक्षते इति ।"२ इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि शैली आशुबोधगम्य है । जिज्ञासु थोड़े श्रमसे ही प्रमेयरत्नमालाके हृद्यको अवगत कर सकता है। इसके अतिरिक्त व्याख्यामें अलंकारों और ध्वन्यर्थोंका भी प्रयोग किया है, जिससे शैली में सरसता आ गयी है। आरंभमें मंगलाचरणके श्लोकोंकी व्याख्या करते हए "नतामरेति अस्मिन श्लोके वृत्त्यनुप्रासशब्दालंकारः । रेफादिवर्णानामावत्तेः । एकद्वयादिवर्णानामावृत्तौ वृत्त्यनुप्रासस्य अभिहितत्वात् । तदुक्तं-एकद्विप्रमुखावर्णाः व्यवधानेन यत्र वै आवर्तन्ते तदा तत्र वृत्त्यनुप्रास इष्यते "इतिपदार्थ हेतुकं काव्यलिंगमर्थालंकारः । हेतोर्वाक्यपदार्थ त्वेकाव्यलिङ्गमुदाहृतम् इति लक्षणात् । अकलंकेति-अत्र रूपकालंकारः वचसि अम्भोधित्वस्य प्ररूपणात्, उपमानोपमेययोरभेदकथनं हि रूपकम्" । __ भाषा सरल और प्रवाह युक्त है । न्याय जैसे कठिन विषयको सरल संस्कृतमें समझाने का आयास प्रशंसनीय है। समस्यन्त प्रयोगोंका प्रायः अभाव है । टीकाकारने विषयको बलपूर्वक लादनेका प्रयास नहीं किया है, बल्कि सुगमरोतिसे पाठकोंके अन्तःकरणमें प्रविष्ट करानेकी चेष्टा की है। जैसा प्रायः देखा जाता है कि कतिपय टीकाकार विषय को इतना उलझा देते हैं कि मूल ग्रन्थ समझमें आ जाय, पर टीका नहीं आती। परन्तु इस अपवादसे यह टीका १. उ० पु० पृ० २ उ. ४ पू० २. उ० पु० पृ० २८, २९ ३. उ० पु० पृ० १ ४. उ० पु० पृ० २
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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