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________________ जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा गयी है । इसी परिच्छेदमें आत्माका व्यापकत्व और अणुपरिमाणाधिकरणत्वका भी खण्डन कर शरीर प्रमाण आत्माको सिद्ध किया है । ____टीकाएँ-प्रमेयरत्नमालाकी अबतक छः-सात टीकाएँ उपलब्ध हैं। इनमें निम्न टीकाएँ विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें विषयनिरूपण स्वतन्त्ररूपसे किया है तथा दार्शनिक तथ्योंकी मीमांसा प्रमेयरत्नमालाके क्षेत्रमें रहकर भी सुस्पष्ट और विस्तृतरूपसे की है। (१) अर्थप्रकाशिका (२) न्यायमणिदीपिका (३) प्रमेयकण्ठिका (४) प्रमेयरत्नमालालंकार (५) प्रमेयविवृत्ति और (६) प्रमेयरत्नमाला लघुवृत्ति ।। अर्थप्रकाशिकाः-इस टीकाके रचयिता पंडिताचार्य चारुकीति हैं। यह श्रवणबेलगोलाके पट्टाधीशोंका उपाधि नाम रहा है । अतः निश्चित प्रमाणके अभावमें इस टीकाका समय निर्धारण करना कठिन है । परन्तु इस टीकामें सम्बन्धादित्रयका विवेचन करते हुए स्वयं ग्रन्थकर्ताने लिखा है ___ "लभ्यते एव विषयत्वं नाम शास्त्रजन्यबोधविषयत्वमिति । अत्र वक्तव्यांशः न्यायमणिदीपिकाप्रकाशे एतत्सूत्रव्याख्यायां च विस्तरेणास्माभिरभिहितो वेदितव्यः'। इससे स्पष्ट है कि न्यायमणिदीपिका टीका भी इन्हीं पण्डिताचार्य की है । A Descriptive Catalogue of the Sanskrit Manuscripts in the Government Oriental Manuscripts Library; Madras में न्यायमणिदीपिका की प्रशस्ति देते हुए संपादकने लिखा है "The transcription of this manuscript is said to have been completed by Janarılan-Vijaya of Vasistha gotra and pupil of Cavukirti Panditacarya on monday the Ist of the bright half of the month Arani in the year Plave in thc Salivahana year 1763"२ अर्थात् इस टीकाको शक संवत् १७६३ में वैशाख शुक्ला प्रतिपदा सोमवारको प्लव नामक संवत्में पंडिताचार्य चारुकीतिके शिष्य वशिष्ठगोत्रीय जनार्दन विजयने पूर्ण किया । इससे स्पष्ट है कि न्यायमणिदीपिकाका आरम्भ भी पंडिताचार्य चारुकीर्तिने ही किया था, पर वे किसी कारणसे इसकी समाप्ति नहीं कर सके, अतः इसे उनके शिष्य जनार्दन विजयने समाप्त किया । अर्थप्रकाशिकामें भी स्वयं ग्रन्थकर्ताने न्यायमणिदीपिकाकी बात ऊपर कही है, अतएव उक्त टीकाका रचनाकाल शक संवत्की १८वीं शती है । मालूम होता है कि न्यायमणिदीपिका अर्थप्रकाशिकासे पहले लिखी गयी थी, पर समाप्ति उसकी पीछे हुई । शैली और भाषा-अर्थप्रकाशिका टीकाको शैलीमें जहाँ-तहाँ नव्यन्याय पद्धतिका आश्रय लिया गया है। यथा-"अनुवादो नाम अत्र न निष्ठप्रकारताशालिबोधजनकशब्दप्रयोगः" । "प्रतिज्ञा हि स्वकर्तव्यत्वप्रकारकबोधजनकशब्दप्रयोगरूपा । यथा मया इदं क्रियते इति प्रतिज्ञायां निरुक्तलक्षणं वर्तते । स्वं वक्तपुरुषः तत्कर्तव्यत्वं कर्तृविषयत्वं तत्प्रकारको यो बोधः मया क्रियते इति वाक्यजन्यमन्निष्ठकृतिविषयाभिन्नमिदमित्याकारको बोधः । तादृशबोधे १. अर्थप्रकाशिका नवें पृष्ठका पूर्वार्ध । २. DCSM पृष्ठ ३९७६ ।। ३. पृ० २३
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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