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________________ ३६ भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान प्रत्यक्ष माना है । सांव्यावहारिक प्रत्यक्षके अन्तर्गत मतिज्ञानके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद हैं । अवग्रहके दो भेद हैं- व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह । व्यञ्जनावग्रह चक्षु और मनसे नहीं होता; अतः व्यञ्जनावग्रहकी उत्पत्ति स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन चार इन्द्रियोंसे होती है । व्यञ्जनावग्रह जहाँ होता है, वहाँ ईहादि अन्य तीन ज्ञान उत्पन्न नहीं होते । प्रत्येक इन्द्रियज्ञान बहु, अबहु, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, अनिसृत, निसृत, उक्त, अनुक्त, ध्रुव और अध्रुव इन बारह प्रकारके विषयोंको ग्रहण करता है, अतः व्यन्जनावग्रहके कुल ४८ भेद हुए । अर्थावग्रहके साथ ईहादि ज्ञान होते हैं, अतः इनके ४x६ × १२ = २८८ भेद हुए । समस्त मतिज्ञानके २८८ + ४८ = ३३६ भेद हुए । इस परिच्छेद में ज्ञान मीमांसाके साथ ताद्रूप्य, तदुत्पत्ति और तद्ध्यवसायका निराकरण कर योग्यता - क्षयोपशम शक्तिको ही ज्ञान व्यवस्था में कारण माना है । इस परिच्छेदके अन्तिमसूत्र में सर्वज्ञसिद्धि, ईश्वरसृष्टिकर्तृत्वनिराकरण तथा ब्रह्माद्वैतका निराकरण पुष्ठ प्रमाण और तर्कोंके आधार पर किया गया है । तृतीय परिच्छेद में परोक्ष ज्ञानके भेद - स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगमकी परिभाषाएँ परमत निराकरण पूर्वक दी गयी हैं । हेतुकी व्यवस्था बतलाते हुए त्रैरूप्य पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्ष से व्यावृत्तित्व तथा नैयायिकाभिमत पञ्चरूप्यका खण्डन किया गया है । स्वार्थानुमान, परार्थानुमानके लक्षणोंके पश्चात् उपलब्धि और अनुपलब्धिरूप हेतुओं के भेद प्रभेदों का सविस्तार वर्णन है । अन्तमें आगमका लक्षण निर्धारित करते हुए वेदके अपौरुषेयत्व और शब्दके नित्यत्वकी सुन्दर विवेचना की है । यह प्रकरण दार्शनिकोंके लिए मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक है । इसी प्रकरणमें बौद्धाभिमत अन्यापोहका भी खण्डन किया है । चतुर्थ परिच्छेद के आरम्भ में सामान्यविशेषात्मक पदार्थको सिद्ध करते हुए बोद्धाभिमत निरपेक्षविशेष, और सांख्याभिमत निरपेक्ष सामान्यका अनेक तर्क और युक्तियों द्वारा खण्डन किया है। इस प्रकरण में सांख्याभिमत सृष्टिके आरम्भ और प्रलयकी प्रक्रियाका दिग्दर्शन भी कराया गया है । इसी सूत्रकी व्याख्यामें समस्त वस्तुओं को अनेकान्तात्मक सिद्ध करते हुए अनेकान्तात्मक वस्तुव्यवस्था में पर प्रदत्त विरोध, वैयधिकरण, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और अभाव इन आठ दोषोंका परिहार कर वास्तविक वस्तु व्यवस्था सिद्ध की है | सामान्यके तिर्यक् और ऊर्ध्व एवं विशेषके पर्याय और व्यतिरेक भेदोंका लक्षण सहित विवेचन किया है । इस अनेकान्त दृष्टि द्वारा एकान्तोंकी पारस्परिक वादलीलाका अन्त आचार्यने बड़े सुन्दर ढंगसे किया है । समस्त विरोधोंका समाधान एवं पूरे सत्यका दर्शन अनेकान्तवादकी भूमिका पर ही संभव है । यद्यपि यह विचारसरणी अनन्तवीर्यकी नयी नहीं है, आचार्य अकलंक, समन्तभद्र और प्रभाचन्द्र जैसे तार्किकोंका अनुकरणमात्र है, तो भी थोड़े में तथ्यांशका दर्शन करा देना ही इनकी मौलिकता है । पांचवें परिच्छेद में प्रमाणका फल और उसके भिन्नाभिन्नत्वका विश्लेषण किया है । छठें परिच्छेद में प्रमाणाभास, हेत्वाभास, नय, नयाभास आदिका विवेचन है । हेत्वाभास संख्याविषयक जो अनेक परम्पराएँ प्रचलित हैं, उन सबकी मीमांसा इस प्रकरणमें मुख्यरूपसे की
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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