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________________ जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा प्राचीन नैयायिकों का उक्त शंकाके समाधानमें उत्तर है कि सामान्य ज्ञानको प्रत्यासत्ति माननेसे नव्य नैयायिकके यहाँ भी उक्त दोनों दोष आ जायेंगे। नवीन नैयायिक उक्त शंकाका उत्तर देते हुए कहता है कि प्रथम पक्ष में घटके नाश होनेपर भी घटका ज्ञान तो है ही, द्वितीय पक्षमें सामान्य घटके नित्य होनेपर भी इन्द्रिय सम्बन्धके बिना उसका ज्ञान सर्वथा असम्भव है । यतः 'सामान्यविषयकं ज्ञानं प्रत्यासत्तिर्न तु सामान्यं ।' ननु सामान्य लक्षण शब्दसे सामान्य विषयक ज्ञान यह अर्थ कैसे घटित हुआ। उत्तर-लक्षण शब्दका ही विषय अर्थ है । अतः सामान्य विषयक ज्ञानको प्रत्यासत्तित्वका लाभ हो गया। अतएव "तेन सामान्यविषयकं ज्ञानं प्रत्यासत्तिरित्यर्थो लभ्यते ।" ननु जहाँ चक्षु संयोगके बिना ही सामान्य-घटत्वका शाब्दिक या स्मरणात्मक ज्ञान हो गया है, वहाँ सर्व घटा इत्याकारक सकल घटोंका अलौकिक चाक्षषा प्रत्यक्ष होना चाहिये। उत्तर- ब आप चक्षुरादि बहिरिन्द्रियसे सामान्य लक्षणाके द्वारा अलौकिक चाक्षुष प्रत्यक्ष करना चाहें उस समय यत् किंचित् धर्ममें उस सामान्य-घटत्वका चक्षु आदि इन्द्रियसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानकी सामग्री अपेक्षित है। उस सामग्रीके बिना वह ज्ञान नहीं हो सकता और सामग्री चक्षु संयोग आदि है। अतः पूर्वोक्त स्थलमें चक्षु संयोगके बिना अलौकिक चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है । आलोक संयोग भी सामग्रीके अन्तर्गत है । अतः अन्धकारमें घट आदिका चक्षुसे अलौकिक चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता है । अतएव सामान्य ज्ञान लक्षण प्रत्यासत्ति ही सामान्य लक्षण अलौकिक प्रत्यक्षके लिये सन्निकर्ष है । ननु ज्ञान प्रत्यासत्ति यदि ज्ञानरूपा और सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति भी ज्ञानरूप है, तो इन दोनों सन्निकर्षों में क्या अन्तर होगा ? उत्तर-सामान्य लक्षण सन्निकर्ष अपने आश्रयके अलौकिक प्रत्यक्षमें कारण होता है । अर्थात् सामान्यके सकल आश्रयोंका प्रत्यक्ष सामान्य लक्षणाके द्वारा होता है-जैसे घटत्व ज्ञानरूप सामान्य लक्षणासे घटत्वाश्रय सकल घटोंका अलौकिक प्रत्यक्ष होता है और ज्ञानलक्षणा सन्निकर्ष जिसका विषयी-ज्ञान होता है, उसीका व्यापार सन्निकर्ष होता है, आश्रयका नहीं । जैसे 'सुरभि चन्दनम्' में चन्दनको देखकर सौरभका ही स्मरणात्मक ज्ञानरूप ज्ञानलक्षणा सन्निकर्षके द्वारा अलौकिक प्रतीति होती है न कि सौरभाश्रय चन्दन की। क्योंकि-"चक्षुसंयुक्त मनःसंयुक्तात्म समवेत स्मृतिविषयत्वं' यही ज्ञान लक्षणा वस्तु है। चन्दनको देखनेके बाद सुगन्धकी स्मृति आती है । अतः तादृश स्मृति विषयत्वरूप ज्ञानलक्षणा सौरभका सन्निकर्ष है चन्दनका नहीं। क्योंकि चन्दनका तो चाक्षुष ही हो रहा है। नैयायिकोंका अभिप्राय यह है कि सामान्य लक्षणा अलौकिक सन्निकर्ष न माननेपर समस्त सामान्याश्रयोंकी प्रतीति नहीं हो सकेगी। क्योंकि प्रत्यक्ष मात्रमें सन्निकर्ष कारण है । मुक्तावलीमें बताया है-"प्रत्यक्षे सन्निकर्ष विना भानम् न सम्भवति तथाच् सामान्य लक्षणाम् विना धूमत्वेन सकलधूमानाम् वह्नित्वेन सकलवह्निमाम् च भानं कथं भवेत् तदर्थम् सामान्य लक्षणा स्वीक्रियेत" । ननु सामान्य लक्षणा स्वीकार कर ली जाये तो प्रमेयत्वरूप सामान्य लक्षणाके द्वारा समस्त प्रमेयोंका ज्ञान हो जानेसे सर्वज्ञताकी आपत्ति हो जायगी । उत्तर-प्रमेयत्वरूप सामान्य लक्षणाके द्वार। सामान्यतः यावत्प्रमेयका ज्ञान होनेपर भी घटत्व पद आदि तद् विशेष धर्मोके
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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