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________________ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन नाङ्मयका अवदान बाद अयं घटः इस प्रकारका सविकल्पक ज्ञान होता है। यह ज्ञान घटको दिशेष्य विधया और घटत्वको विशेषण विधया ज्ञात करता है। अतः इन्द्रिय सम्बन्ध विशेष्य-घटका जो ज्ञान अयं घटः इत्याकारक ज्ञान इसमें प्रकारीभूत सामान्य वा घटत्व उस घटत्व रूप सामान्य लक्षण सन्निकर्षक द्वारा 'घटाः' इत्याकारक सकल घट विषयक अलौकिक प्रत्यक्ष होता है। इसीको मुक्तावलीमें निम्न प्रकार दिखलाया गया है ___ "तथाहि-इन्द्रियसम्बद्धो धूगादिस्तद्विशेष्यकं धूम इति ज्ञानं यत्र जातं, तत्र जाने धूभत्वं प्रकारः, तत्र धूमत्वेन रूपेण सन्निकर्षेण धमा इत्येवरूपं सकलधूमविषयकं ज्ञानं जायते । अत्र यदीन्द्रियसम्बद्धमित्येवोच्यते तदा धूलीपटले चूमत्वभ्रमानन्तरं सकलधूमविषयकं ज्ञानं न स्याद् धूमत्वेन सहेन्द्रियसम्बन्धाभावात् । मन्मते इन्द्रियसम्बद्ध धूलीपटलं तद्विशेष्यकं धूम इति ज्ञानं तत्र प्रकारीभूतं धूमत्वं प्रत्यासनिः । इन्द्रियसम्बन्धश्व लोकिको ग्राह्यः । इदं च बहिरिन्द्रियस्थले बोध्यम् । मानसस्थले तु ज्ञानप्रकारीभूतं सामान्य प्रत्यासत्तिः ।' ___ सामान्य पदार्थोंके भानको सामान्य शब्द द्वारा कहा गया है । यह सामान्य कहीं नित्य है । जैसे-शूमित्व आदि । कहीं अनित्य है जैसे-घटत्वादि । जहाँ एक ही घट संयोग सम्बन्धसे भूतलमें और सपनाय सम्बन्धसे कपालमें ज्ञात होनेके अनन्तर 'सर्वाणि भूतलानि प्रयोगेन घटवन्ति एवं सर्वे कपालाः समवायेन घटवन्तः' इस प्रकारसे संयोग सम्बन्धसे सकल घटवत् भूतलोंका-एवं समवाय सम्बन्धंसे सकल घटवाले कपालोंका ज्ञान होता है । अतएव सामान्य लक्षण प्रत्यासत्ति द्वारा सामान्य लक्षण सन्निकर्षकी प्रतीति होती है। प्राचीन नैयायिकोंने ज्ञायमान सामान्यको प्रत्यासत्ति बतलाकर सामान्य ज्ञानको अलौकिक प्रत्यक्ष सन्निकर्ष माना है, पर नव्य नैयायिक कहते हैं "ननु संयोगेन घटवत् भूतलम्" इत्याकारक भूतलमें संयोग सम्बन्धसे घटका चाक्षुष प्रत्यक्ष हुआ ! उसके पश्चात् किसी कारणवश वह घट नष्ट हो गया । इस परिस्थितिमें उस घटके नाश होनेके बाद भी पूर्वोक्त चाक्षुष प्रत्यक्षात्मक अनुभवजन्य संस्कारके बलसे 'भूतलम् तद् घटवत्' यह स्मरण हो अनन्तर ज्ञान सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति के द्वारा तद् घटवाले समस्त अधिकरणों-भूतलोंकी तद् घटवन्ति भूतलानि इत्याकारक अलौकिक प्रतीति होती है । यह प्रतीति ज्ञायमान्य सामान्यको प्रत्यासत्ति माननेपर नहीं हो सकेगी। क्योंकि कारणभूत सामान्य-तद् घट नहीं है, नष्ट हो चुका है। अतः कारणके व्यतिरेक-न होनेपर कार्यका होना. यह व्यतिरंक व्यभिचार कहलायगा । इस प्रकार प्राचीन नैयायिकोंके मतमें नव्य नैयायिकोंने व्यतिरेक व्यभिचार नामक प्रथम दोष प्रतिपादित किया है। किंच दूसरी बात यह है कि इन्द्रिय सम्बद्द विशेज्यक 'अयं घटः' यह ज्ञान आज हुआ। दूसरे दिन घटके साथ इन्द्रिय सम्बन्धके बिना भी सर्वे घटा इत्याकारक अलौकिक प्रतीति होनी चाहिये । कारण कि आज हमारा चक्षु इन्द्रियके साप सम्बन्ध होकर 'अयं घटः' यह ज्ञान हमें हुआ। उस ज्ञान में प्रकारीभूत सामान्यघटत्व नित्य होनेके कारण सर्वदा रहेगा। अतः सामान्य रूप कारणके रहनेपर भी कार्य अलौकिक प्रत्यक्ष नहीं होता है ! अतः अन्वयव्यभिचार नामक द्वितीय दोष उत्पन्न हो जायगा । अतः सामान्य ज्ञानको ही प्रत्यासत्ति सन्निकर्ष मानना उचित है । १. वही पू० २५१-२५२
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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