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________________ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान द्वारा घट-पट आदि सकल धरनीरूप पदार्थ अज्ञात होनेके कारण सर्वज्ञ दोषकी आपत्ति नहीं है। इसी प्रकार ज्ञान लक्षणा यदि नहीं मानेगें, तो 'सुरभि चन्दनम्' इस ज्ञानमें सौरभका ज्ञान कैसे होगा ? अतः ज्ञानलक्षणा भी मानना चाहिए। ननु सुरभि चन्दनम् यहाँपर सौरभत्वरूप सामान्य लक्षणाके द्वारा सौरभका ज्ञान सम्भव है, फिर ज्ञान लक्षण सन्निकर्षकी क्या आवश्यकता है ? उत्तर-उक्त स्थलमें सौरभकी प्रतीति सामान्यलक्षणासे होनेपर भी सौरभत्वका ज्ञान लक्षणा द्वारा ही सम्भव है । अतः 'सुरभि चन्दनम्' में सौरभत्वके भानके लिए ज्ञान लक्षणाका मानना आवश्यक है। इसी प्रकार जहाँ धूमत्व रूपसे धूम पटलका ज्ञान हुआ अर्थात् 'धूमत्वेन धूलिपटलमहं जानामि' यह अनुव्यवसाय हुआ। इस अनुव्यवसायमें धूलीपटलका भान ज्ञान लक्षणासे ही होगा। अतः ज्ञानलक्षणा प्रत्यासत्ति सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्तिसे सर्वथा भिन्न है। योगज प्रत्यासत्ति उक्त दोनों सन्निकर्षोंसे भिन्न है। यतः-"योगाभ्यासजनितधर्मविशेषोभयसहकृतमनसा युञानस्य सूक्ष्मपदार्थविषयकं मानसं भवति"। योगज सन्निकर्षके दो भेद माने गये हैं योगजो द्विविधः प्रोक्तो युक्तयुञ्जानभेदतः । युक्तस्य सर्वदाभानं चिन्ता सहकृतोऽपरः ॥ अर्थात् योगज अलौकिक सन्निकर्ष दो प्रकार का है-- (१) युक्त योगज अलौकिक सन्निकर्ष । (२) युञ्जान योगज अलौकिक सन्निकर्ष योगज सन्निकर्ष मूलतः योगाभ्याससे उत्पन्न होता है । यह धर्म विशेष रूप है । योगी दो प्रकारके होते हैं, इसी कारण योगज सन्निकर्ष भी दो प्रकार का है । युक्त योगीको योगज धर्मकी सहायतासे आकाश, परमाणु आदि समस्त पदार्थोंका ज्ञान सर्वदा होता रहता है, पर युञ्जान योगीको आकाश परमाणु आदि समस्त पदार्थोंका ज्ञान ध्यान विशेषके करनेपर ही होता है । इस ध्यान विशेषको चिन्ता विशेष भी कहा गया है । इस प्रकार नैयायिकोंने सन्निकर्ष प्रमाणका विस्तार पूर्वक विचार किया है। __ जैन नैयायिकों और बौद्ध नैयायिकोंने सन्निकर्षको प्रमाण रूप नहीं माना है । जैनोंका अभिमत है कि वस्तुका ज्ञान कराने में सन्निकर्ष साधकतम नहीं है, अतएव वह प्रमाण नहीं । अन्वय व्यतिरेक समधिगम्य कार्यकारणभाव ही साधकतम माना गया है। अर्थात् जिसके होनेपर ज्ञान हो, और नहीं होनेपर न हो, उसे साधकतम कहा गया है । किन्तु सन्निकर्षमें यह बात नहीं है । कहीं-कहीं सन्निकर्ष के होनेपर भी ज्ञान नहीं होता। जैसे घटकी तरह आकाश आदिके साथ भी चक्षुका संयोग रहता है, फिर भी आकाश का ज्ञान नहीं होता है। अतः जो जहाँ बिना किसी व्यवधानके कार्य करता है वही वहाँ साधकतम माना जाता है । जैसे-घरमें रक्खे पदार्थोको प्रकाशित करनेमें दीपक । एक ज्ञान ही ऐसा है, जो बिना किसी व्यवधानके अपने विषयकी प्रतीति कराता है। अतः वही प्रतीतिमें साधकतम है। इसलिये वही प्रमाण १. सिद्धान्त मुक्तावली, कारिका ६५
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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