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________________ भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान हेमप्रभ - इनके गुरूका नाम देवेन्द्र सूरि था । इनका समय चौदहवीं शतीका प्रथम पाद है । संवत् १३०५ में त्रैलोक्यप्रकाश रचनाकी गयी है । इनकी दो रचनाएँ उपलब्ध है— त्रैलोक्यप्रकाश और मेघमाला ।' २८० लोक्यप्रकाश बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें १९६० श्लोक है । इस एक ग्रंथके अध्ययन से फलित ज्योतिषकी अच्छी जानकारी प्राप्तको जा सकती है । आरम्भ में ११० श्लोकों में लग्न ज्ञानका निरूपण है । इस प्रकरण में भावोंके स्वामी, ग्रहोंके छः प्रकारके बल, दृष्टिविचार, शत्रु-मित्र, वक्री- मार्गी, उच्च-नीच, भावोंकी संज्ञाएँ, भावराशि, ग्रहबल विचार आदिका विवेचन किया गया है । द्वितीय प्रकरण में योगविशेष-धनी सुखी, दरिद्र, राज्यप्राप्ति, सन्तानप्राप्ति, विद्याप्राप्ति आदिका कथन है । तृतीय प्रकरण में विधिप्राप्ति घर या जमीनके भीतर रखे गये धन और उस धनको निकालने की विधिका विवेचन है । यह प्रकरण बहुत ही महत्त्व - पूर्ण है । इतने सरल और सीधे ढंगसे इस विषयका निरूपण अन्यत्र नहीं है । चतुर्थ प्रकरण योग और पंचम ग्रामपृच्छा है । इन दोनों प्रकरणोंके नामके विभिन्न प्राप्ति आदिका कथन है । सप्तम प्रकरण में छठे भावसे विवेचन, अष्टम में सप्तम भावसे दाम्पत्य सम्बन्ध और नवम्में विभिन्न दृष्टियोंसे स्त्री सुखका विचार किया गया है । दशम प्रकरण में स्त्री जातक - स्त्रियोंकी दृष्टियोंसे फलाफलका निरूपण किया गया है। एकादश में परचक्रगमन, द्वादशमें गमानामन, त्रयोदशमें युद्ध, चतुर्दशमें सन्धि विग्रह, पंचदशमें वृक्ष ज्ञान, षोडशमें ग्रह दोष-ग्रह पीड़ा, सप्तदश में आयु, अष्टादश में प्रवहण और एकोनविंश में प्रवृज्याका विवेचन किया । बीसवें प्रकरण में राज्य या पदप्राप्ति इक्कीसवें में वृष्टि, बाईसवें में अर्धकाण्ड, तेईसवें में स्त्रीलाभ, चौबीसवें में नष्ट वस्तुकी प्राप्ति, एवं पच्चीसवें में ग्रहोंके उदयास्त, सुभिक्ष दुर्भिक्ष, महर्ष, समर्प और विभिन्न प्रकारसे तेजी - मन्दीकी जानकारी बतलाई गयी है । इस ग्रंथकी प्रशंसा स्वयं ही इन्होंनेको है । 2 अनुसार विभिन्न दृष्टियोंसे विभिन्न प्रकारसे रोगों का श्रीमद्देवेन्द्रसूरीणां शिष्येण ज्ञानदर्पणः । विश्वप्रकाश कश्चक्रे श्री हेमप्रभसूरिणा ॥ श्री देवेन्द्र सूरिके शिष्य श्री हेमप्रभ सूरिने विश्वप्रकाशक और ज्ञानदर्पण इस ग्रन्थको रचा । मेघमालाकी श्लोक संख्य १०० बतायी गयी है। प्रो० एच० डी० वेथंकरने जैनग्रंथावली में उक्त प्रकारका ही निर्देश किया है । रत्नशेखरसूरिने दिनशुद्धि दीपिका नामक एक ज्योतिष ग्रन्थ प्राकृत भाषामें लिखा है । इनका समय १५वीं शती बताया जाता है । इस ग्रन्थके अन्त में निम्न प्रशस्ति गाथा मिलती है । सिरिवयरसेणगुरुपट्ट- नाहि सिरिहेमतिलय सूरीणं । पायसाया एसा रयण सिहरसूरिणा विहिया ॥ १४४ ॥ १. जैन ग्रंथावली, पृ० ३५६ २. त्रैलोक्य प्रकाश, श्लोक ४३०
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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