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________________ १५८ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान भारतीय संस्कतिके विकाममें जैः है । अतः स्पष्ट है कि समाज में दो प्रकारकी वेश्याओंकी स्थिति थी। प्रथम वे जो केवल नृत्य, गायक आदिका कार्य करती थीं और जो धार्मिक अथवा मांगलिक अवसरों पर बुलायी जाती थों और द्वितीय वे वेश्याएं थीं जो धनके लिए अपने शीलको बेचती थीं। अतः प्रथम प्रकारकी वेश्याएं उस समयकी देवदासियोंसे भिन्न अन्य नहीं हैं । उस समय स्त्रियोंमें मद्यपानका भी प्रचार था । जो स्त्रियाँ मद्यपान नहीं करती थीं वे श्राविका मानी जाती थीं । ४४ वें पर्वके २९० वें श्लोकमें बताया है दूरादेवात्यजन् स्निग्धाः श्राविका वाऽऽसवादिकम् । इसी पर्वके २८९ वें श्लोकमें बताया गया है कि मद्य के समान सम्मान और धर्मको नष्ट करने वाला और कोई पदार्थ नहीं है । यही सोचकर ईर्ष्यालु, कलहकारिणी, सपत्नियोंने अपनी सहवासिनियोंको खूब मद्य पिलाया। कुछ स्त्रियां तो वासनाको उत्तेजित करनेके लिए मद्यपान किया करती थीं। वृथाभिमानविध्वंसी नापरं मधुना बिना। कलहान्तरिता काश्चित्सखीभिरतिपायिताः ॥ मधु द्विगुणितस्वादु पीतं कान्तकरार्पितम् ॥ (पर्व ४४, श्लोक २८९) जननी की स्थिति जननी रूप नारीको जिनसेनने बड़े आदरकी दृष्टिसे देखा है। इन्द्राणीने जननी रूपमें मरुदेवीकी स्तुति की है उससे स्पष्ट सिद्ध है कि जननी रूप नारी प्रत्येक नरनारी द्वारा वन्दनीय है । १५वें पर्वके १३१वें श्लोकमें बताया गया है कि "गर्भवती स्त्रीका समाजमें विशेष ध्यान रक्खा जाता है । उसके दोहदको पूर्ण करना प्रत्येक पतिका परम कर्तव्य है ।" आचार्यने कहा है: त्वमम्ब भुवनाम्बासि कल्याणी त्वं सुमंगला । महादेवी त्वमेवाद्य त्वं सपुण्या यशस्विनी ॥ प्रजासन्तत्यविच्छदे तनुते धर्मसंततिः । मनुष्व मानवं धर्म ततो देवेममच्युत ॥ देवेमं गृहिणां धर्म विद्धि दारापरिग्रहम् । सन्तानरक्षणे यत्नः कार्यो ही गृहमेधिनाम् ॥ इससे स्पष्ट है कि सन्ततिको जन्म देने वाली माता सर्वथा वन्द्य और पूजनीय थी। मांको अपने पुत्रके विवाहके अवसरपर सबसे अधिक प्रसन्नता होती थी जैसा कि आज भी देखा जाता है। १५वें पर्वके ७३वें श्लोकमें बताया है-"दारकर्मणि पुत्राणां प्रीत्युत्कर्षों हि योषिताम्" । अतः सिद्ध है कि मांको नवीन पुत्रवधूके प्राप्त होनेमें सबसे अधिक प्रसन्नता होती है । ७ वें पर्वके २०५ वें श्लोकमें बताया है कि वसुन्धराको अपने पुत्रके विवाहके अवसर पर परम हर्ष हुआ। उसका रोम रोम हर्ष विभोर हो उठा। अतः स्पष्ट है कि जननी गृहस्वामिनीके उत्तरदायित्व पूर्ण पदका निर्वाह करती हुई नवीन बधूके स्वागतके लिए सदा
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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