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________________ जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति १५७ यह तो चर्चा हुई स्त्रियोंकी महत्ताके सम्बन्धमें, पर कुछ प्रमाण ऐसे भी उपलब्ध होते हैं जिनसे प्रतीत होता है कि जिनसेनके समयमें नारी परिग्रहके तुल्य मानी जाने लगी थी। इसी कारण सातवें पर्वके १९६, १९७ वें श्लोकमें नारीकी स्वतंत्रताका अपहरण करते हुए बलपूर्वक विवाह करनेकी बात कही गई है। __ अथवैतत् खलूक्त्वायं सर्वथाऽर्हति कन्यकाम् । हसन्त्याश्च रुदन्त्याश्च प्राघूर्णक इति श्रुतेः ॥ स्त्रियोंके स्वभावका विश्लेषण करते हुए (पर्व ४३, श्लोक १०५-११३) में बताया गया है कि स्त्रियाँ स्वभावतः चंचल, कपटी, क्रोधी और मायाचारिणी होती है । पुरुषोंको स्त्रियोंकी बातों पर विश्वास न कर विचारपूर्वक कार्य करना चाहिये । वासनाके आवेशमें आकर नारियाँ धर्मका परित्याग कर देती हैं। एक और सबसे बड़े मजे की बात तो यह है कि स्त्रियोंको भी पुरुषोंकी शक्ति पर विश्वास नहीं है। ६वें पर्वके १६९ वें श्लोकमें बताया गया है कि स्त्री ही स्त्रीका विपत्तिसे. उद्धार कर सकती है स्त्रीणां विपत्प्रतीकारे स्त्रिय एवावलम्बनम् । इससे यह भी ध्वनित होता है कि उस समय स्त्रियोंमें सहयोग और सहकारिताको भावना अत्यधिक थी। नारीको नारीके ऊपर अटूट विश्वास था इसलिए नारी अपनी सहायता के लिए पुरुषोंकी अपेक्षा नहीं करती थी। वेश्याओंकी स्थितिके सम्बन्धमें भी जिनसेनने पूरा प्रकाश डाला है । वेश्याएं मधपान करती थीं तथा समाजमें उनकी स्थिति आजसे कहीं अच्छी थी। मांगलिक अवसरोंपर तथा धार्मिक अवसरोंपर वेश्याएं बुलाई जाती थीं । इनकी गणना शुभशकुनके रूपमें की गई है अभिशापके रूपमें नहीं। जब भगवान् ऋषभदेव दीक्षाके लिए चलने लगे तो एक ओर दिककुमारी देवियां मंगल द्रव्य लेकर खड़ी थीं तो दूसरी ओर वस्त्राभूषण पहने हुई उत्तम वारांगनाएँ मंगल द्रव्य लेकर प्रस्तुत थीं। एकतो मंगलद्रव्यधारिण्यो दिक्कुमारिकाः । अन्यतः कृतनेपथ्या वारमुख्या वरश्रियः ।। भगवान्के निष्क्रमण कल्याणकके अवसरपरसलीलपदविन्यासमन्येता वारयोषिताम् । (पर्व १७, श्लोक ८६) जन्म और विवाहके अवसर पर भी वेश्याओं द्वारा मंगल गीत गाये जानेकी प्रथा का उल्लेख है । सातवें पर्वके २४३, २४४ वें श्लोकमें "मंगलोद्गानमातेनुः वारवध्वः कलं तदा" से सिद्ध है कि महोत्सवोंमें वारांगनाओं का आना आवश्यक सा था । मुझे तो ऐसा प्रतीत है कि ये धार्मिक महोत्सवोंपर सम्मिलित होने वाली वारांगनाएँ देवदासियाँ ही हैं। यह जिनसेनाचार्यका साहस है कि उन्होंने देवदासियोंको खुले रूपसे वारांगना घोषित किया क्योंकि इसी ग्रंथमें वेश्याओंका एक दूसरा चित्र भी मिलता है जिसमें उन्हें त्याज्य एवं निन्द्य बताया गया
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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