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________________ १४० भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान (१०) सम्प्रतिने स्तम्भ बनवाये उनपर सिंहकी मूर्तियाँ इसलिए अंकित करायीं कि यह उनके आराध्य भगवान् महावीरका चिन्ह है तथा सम्यग्दृष्टिके निर्भयपनेका सूचक भी है। सिंहकी मूर्तियाँ और चक्र सम्प्रति उर्फ प्रियदर्शिन्के ही हैं, क्योंकि इनका निकट सम्बन्ध जैनसंस्कृतिसे है। शंकाएँ यदि अशोकका उपनाम या विशेषण प्रियदर्शिन् न माना जाय तो मक्खी के शिलालेख में अशोक शब्द स्पष्ट क्यों लिखा गया है ? प्रियदर्शी बौद्धधर्मके यात्रास्थान लुंबिनी और निग्लिविमें क्यों गया था ? यदि बौद्धधर्मो न होता तो वह वहां क्यों जाता? अतः प्रियदर्शिन् अशोकका विशेषण या उपनाम है। समाधान ___ मक्खीके शिलालेखमें 'देवानां प्रिय असोकस्स' आया है, प्रियदर्शिन्का नाम नहीं आया है, अतः यह शिलालेख अशोकका ही है। देवानां प्रिय उपाधि राजाओंके लिये उस कालमें व्यवहृत होती थी। इसलिये इस शिलालेखसे अशोक और प्रियदर्शी एक सिद्ध नहीं होते हैं ! यदि इसमें देवानां प्रिय प्रियदर्शिन् अशोक, ऐसा पाठ होता तो अवश्य अशोकका दूसरा नाम प्रियदर्शिन् माना जा सकता था। दूसरी शंकाका समाधान यह है कि अशोककी मृत्यु सम्प्रतिके राज्याभिषेकके १९ वर्ष बाद ई०पू० २७० में हुई थी, अतः वह एक वर्ष बाद अपने पूज्य पितामहकी सांवत्सरिक क्रिया करनेके लिए गया होगा। दूसरी बात यह भी है कि राजा सभी धर्मों का संरक्षक तथा धर्म सहिष्णु होता है, अतः सम्प्रतिने अन्य स्थानोंके निरीक्षणके समान उक्त धर्म स्थानोंका भी निरीक्षण और दर्शन किया होगा। अतः शिलालेखों द्वारा सम्प्रतिके कार्योंका अनुमानकर उसे यश मिलाना चाहिए । वर्तमानमें राष्ट्रध्वजके लाञ्छन सम्प्रतिके ही हैं । भ्रमवश लोग अशोक के समझे हुए हैं। धर्म प्रचार सम्प्रतिने जैनधर्मके प्रचारके लिए सवालाख नवीन जैन मन्दिर दो हजार धर्मशालाएं, ग्यारह हजार वापिकाएं और कुंए खोदवाकर पक्के घाट बनवाये । सवा करोड़ जिन-बिम्बोंकी प्रतिष्ठा करायी तथा छत्तीस हजार मन्दिरोंका जीर्णोद्धार करवाया । एपीटम ऑफ जैनिज्ममें 1. Samprati was a great Jain monarch and a staunch supporter of the faith. He erected thousands of temples throughour the length and breadth of is vast empire and consecreted large number of images, He is stated further to have sent Jain missionaries and ascetics abroad to preach Jainism in the distant countries and spread the faith amongst the people there. -An Epitome of Jainism, Appendix A. P. v
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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