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________________ जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति बताया गया है कि सम्प्रति महान् वीर जैनधर्मानुयायी था। इसने धर्मको वृद्धिके लिए सुदूर देशोंमें धर्मका प्रचार कराया, अनार्य देशोंमें संघका विहार कराया तथा अपने अधीन सभी राजाओंको जैनी बनाकर जैनधर्मके प्रचारकोंको सब प्रकारसे सहयोग दिया। खरतरगच्छावलीमें भी सम्प्रतिके कार्योंका उल्लेख करते हुए बताया गया है कि जैन साधुओंको धर्म प्रचारके लिए राजदूत बनाकर विदेशोंमें भेजा गया था। मालगुजारी वसूल करनेका कार्य भी प्रायः जैन साधु करते थे, ये साधु सातवीं प्रतिमाके धारी होते थे। ___ सम्प्रतिके धर्म प्रभावनाके कार्योंका निरूपण करते हुए कहा गया है कि यह सम्राट रथयात्रामें साथ रहता था तथा नाना प्रकारके पुष्पहार, तोरण, मालाओं आदिसे रथको सज्जित कर भगवान् जिनेन्द्रकी सवारी गाजे-बाजेके साथ निकालता था। इसने अपने आधीनस्थ राजाओंको आदेश दिया था कि यदि आप लोग मुझे अपना स्वामी मानते हैं तो जैन साधुओं का सम्मान करें, चतुर्विध संघका आदर करें। मुझे दण्ड द्वाग द्रव्यकी आवश्यकता नहीं है । अपने-अपने राज्यमें अभयदान करें, अहिंसा धर्मका प्रचार एवं पालनकर अपना कल्याण करें। चतुर्विध संघको तथा विशेषतः जैन साधुओंको शुद्ध आहार, पात्र तथा अन्य आवश्यकताकी वस्तुएं दानमें दें। सम्राट् सम्प्रतिने अरब, ईरान, सिंहलद्वीप, रत्नद्वीप, महाराष्ट्र, आन्ध्र, कुडुक्कु आदि देशोंमें जैनधर्मका प्रचार कराया था। इसके द्वारा निर्मित मन्दिरोंमें गुजरात और राजपूतानेमें कुछ मन्दिरोंके ध्वंस अब भी वर्तमान हैं। कर्नल टॉड ने लिखा है कि “कमलमेरका शेष शिखर समुद्रतलसे ३३५३ फीट ऊंचा है । यहाँसे मैंने मरुक्षेत्रके बहुदूरवर्ती स्थानोंका प्रान्त निश्चय कर लिया। यहाँ ऐसे कितने ही दृश्य विद्यमान हैं, जिनका समय अंकित करने में लगभग एक मासका समय लगनेकी सम्भावना है। किन्तु हमने केवल उक्त दुर्ग और एक बहुत पुराने जैन मन्दिरका चित्रांक समाप्त करनेका समय पाया था। इस मन्दिरको गठन प्रणाली १. येन सम्प्रतिना""साधुवेषधारी-निज-किङ्करजनप्रेषणेन अनार्यदेशेऽपि साधुविहारं कारितवान् । -खरतरगच्छावलि संग्रह पृ० ७ २. जति मं जाणइ सामि, समणाणं पणमहा सुविहियाणं । दम्वेण मे न कज्जं, एवं खु पियं कुणह मज्झं ।।। यदि मां स्वामिनं यूयं जानीथ मन्यध्वे ततः श्रमणप्रणमनादिकं मम प्रियं तदेव यूयं कुरुत । वीसज्जिया य तेणे, समणं घोसावणं सरज्जेसुं । साहूणं सुहविहारा, जाता पच्चंतिया देसा । समणभडभाविए सुं, तेसुं रज्जेसु एसणादीसुं । साहू सुहं विहरिया तेणं वि य भद्दगा तेउ । उदिणजोहाउलसिद्धसेणापडिट्टितो णिज्जियसत्तुसेणो । समंततो साहुसुहप्पयारे अकासि अंधे दविले य घोरे ।। -अभिधान राजेन्द्र भाग ७ पृ० १९९-२०० ३. हिन्दी टॉड राजस्थान पहला भाग वि० सं० म० २६ पृ० ७२१-२३
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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