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________________ जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति ६-स्तम्भ लेख नं० ५ में पक्षियोंके वध, जलचर प्राणियोंके शिकार तथा अन्य प्राणियोंके वध करनेका अष्टमी, चतुर्दशी और कात्तिक, फाल्गुन एवं आषाढ़की अष्टान्हिका तथा पयूषण पर्वकी पुण्यतिथियोंमें निषेध किया गया है । इस निषेधसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन तिथियोंका महत्त्व जैनोंके लिए जितना है, उतना अन्य धर्मावलम्बियोंके लिए नहीं । अतः इस आज्ञाका प्रचारक जैन ही हो सकता है। अष्टमी और चतुर्दशीको पर्व तिथियाँ जैनोंने ही माना है बौद्ध और वैदिकोंने नहीं । ७--जैनधर्मके पारिभाषिक शब्द शिलालेखोंमें इतने अधिक है, जिससे उनके निर्माताको बौद्ध कभी नहीं माना जा सकता। स्तम्भ लेख नं० ६ से पचूपगमन (प्रायुपगमन), शिलालेख नं० ३ में प्राणानारम्भ (प्राण अनारम्भ), शिलालेख नं० ५ में कल्प शिलालेख नं० १२ गुति (गुप्ति) और समवाय (समवायाङ्ग), स्तम्भ लेख नं० २ में संयम, भाव शुद्धि और आस्रव, शिलालेख नं० १३ में वेदनीय तथा पञ्चम स्तम्भ लेखमें जोवनिकाय और प्रोषघ (प्रोषधोपवास) आदि शब्द आये हैं । इन शिलालेखोंका निर्माता सम्प्रति उपनाम प्रियदर्शिन्' होना चाहिये। (८) गिरनारके लेख नं० ३ में 'स्वामिवात्सल्यता' का प्रयोग आया है । बौद्ध धर्मकी दृष्टिसे यह बन नहीं सकता, क्योंकि बौद्ध धर्म में भिक्षु और भिक्षुणी इन दोनोंका मिलाकर ही द्विविध संघ होता है, पर जैनधर्ममें मुनि, आयिका, श्रावक, और श्राविका इन चारोंको मिलाने से चतुर्विध संघ होता है । अतः स्वामिवात्सल्यता जैनधर्मकी दृष्टिसे ही बन सकती है, बौद्धधर्मकी दृष्टिसे नहीं। (९) शिलालेख नं० ८ में संबोधिमयाय एक शब्द आया है, जिसके अर्थ में आजतक विशेषज्ञोंको सन्देह है। जैन मान्यतामें यह साधारण शब्द है इसका अर्थ सम्यक्त्व प्राप्ति है । कुछ लोगोंने खींच-तान कर इसका अर्थ जिस वृक्षके नीचे महात्मा बुद्धको सर्वोत्कृष्ट ज्ञानकी प्राप्ति हुई थी, उस बोधि वृक्षके नीचे छायामें जाकर किया है, जो असंगत प्रतीत होता है। १. शिलालेख नं० २ और १३ में ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें बताया गया है कि सम्राट् प्रिय दर्शिन्के शासनकाल में ग्रीक साम्राज्यके पांच हिस्से हो गये थे। उनमें जो नाम बताये गये हैं उन पांचोंके आधारपर यूरोपीय विद्वानोंने उनका शासनकाल इस प्रकार निश्चित किया है-(१) ई० पू० २६१-२४६ (२) ई० पू० २८५-२४७ (३) ई० पू० २७४२४२ (४) ई० पू० २५६ और (५) ई० पू० २७२-२५४ शिलालेखोंकी खुदाईका समय भले ही बादका हो पर उपर्युक्त घटना प्रियदर्शिन् राजा द्वारा राज्याभिषेक होनेके आठ वर्ष बाद कलिंग जीत लेनेसे पहले हुई है । ऐसी दशामें यदि अशोक और प्रियदर्शी एक ही हों तो ई० पू० ३२५-८में अशोकका राज्याभिषेक होनेके हिसाबसे वह समय ई० पू० ३१७ होता है और इस दृष्टिसे विचार करनेपर उपर्युक्त पांच वर्षों में से किसीके साथ भी (राज्यशासनके आरम्भ या अन्तसे) उसका क्रम नहीं जुड़ता है, बल्कि उसके विपरीत वह और ५०-६० वर्ष पहले चला जाता है। इससे सिद्ध होता है कि प्रियदर्शिन् और अशोक ये दोनों एक नहीं, भिन्न व्यक्ति हैं । ना०प्र० प० भाग १६ अंक १ पृ० २२-२३
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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