SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ रचा है । चामुण्डरायने जैनधर्मकी उन्नति के लिये अनेक कार्य किये हैं । इस प्रकार गंगवंशके सभी राजाओंने मन्दिर बनवाये, मन्दिरोंके प्रबन्धके लिये भूमि दान की और जैन गुरुओं को सम्मान देकर साहित्य और कलाका सृजन कराया । दुर्विनीत, नामकर्म, गुणवर्म प्रथम चामुण्डराय इत्यादि अनेक उल्लेखनीय जैन कलाकार गंगवंश के राज्यकालमें हुए हैं । ९८ गंगवंशकालीन जैन साहित्य और कला - गंगराज्यकाल में संस्कृत और प्राकृत भाषा साहित्यकी विशेष उन्नति हुई । अशोकके शासन-लेखों और सातवाहन एवं कदम्ब राजाओं के सिक्कोंपर अंकित लेखोंसे प्रकट है कि इस युगमें प्राकृत भाषाका व्यवहार संस्कृतके साथ-साथ ब्राह्मण और जैन दोनों ही विद्वान् करते थे । ७वीं और ८वीं शतीमें गंगवाडिमें अधिक संख्या में आकर जैन बस गये थे, तब वहाँ संस्कृत साहित्यकी पवित्र मन्दाकिनी प्रवाहित हुई, जिसकी कल-कल ध्वनिसे अष्टशती, आप्तमीमांसा, पद्मपुराण, उत्तरपुराण, कल्याण कारक प्रभृति रचनाएँ प्रस्फुटित हुईं। संस्कृत और प्राकृत के साहित्य के साथ-साथ कन्नड़ भाषाका साहित्य भी उन्नतिकी ओर अग्रसर हो रहा था; प्राचीन कन्नड़, जो कि साहित्यिक भाषा थी, उसका स्थान नवीन कन्नड़ने ले लिया था । इसमें पूज्यपाद समन्तभद्र जैसे युग प्रवर्त्तक प्रसिद्ध आचार्योंने भी साहित्यका निर्माण किया । इस युग में कुछ ऐसे कवि भी हुए हैं, जो तीनों भाषाओंके - संस्कृत, प्राकृत और कन्नड़के विद्वान् थे । गुणवर्मने गंगराजा ऐरेयप्प के समय में 'हरिवंश' की रचना की थी । इन्हीं के समकालीन कवि पम्प बहुत प्रसिद्ध कवि हुए हैं, इन्हें कविता गुणार्णव, पूर्णकवि, सज्जनोत्तम आदि विशेषणोंसे सम्बोधित किया गया है। इस महाकविने लोककल्याणकी भावना से प्रेरित होकर आदिपुराण, विक्रमार्जुन विजय लघुपुराण, पार्श्वनाथपुराणं और परमार्ग नामक ग्रन्थों की रचना की है । पम्प के समकालीन महाकवि पोन्न और रन्न भी हैं । इन दोनों कवियोंने भी कन्नड़ साहित्यको श्रीवृद्धिमें अपूर्व योग दिया है । पोन्नका शान्तिनाथपुराण और रत्नका अजितनाथ - पुराण कन्नड़ साहित्य के रत्न हैं । इनके अतिरिक्त आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने उभय भाषाओं में ग्रंथ रचना की है । कला - गंगवाडिमें स्थापत्य और शिल्पकलाकी विशेष उन्नति हुई थी । उस समय समस्त दक्षिण भारत में दर्शनीय भव्य मंदिर, दिव्य मूर्तियाँ, सुन्दर स्तम्भ प्रभृति मूल्यवान् विशाल कृतियाँ स्थापित हुईं। गंगवाडिकी जैनकला बिल्कुल भिन्न रही । गंगवंशके समस्त राजाओं ने जिनालयों का निर्माण कराया था। मंदिरोंकी दीवाल और छतोंपर कहीं-कहीं नक्कासी और पच्चीकारीका कान भी किया गया था । कोई-कोई मंदिर दो मंजिलके भी थे और चारों ओर दरवाजे रहते थे । पाषाणके सिवा लकड़ीके जिनालय भी बनवाये गये थे । इस युग में मूर्ति निर्माण कलामें भी जैन लोग बहुत आगे बढ़े- चढ़े थे; प्रसिद्ध बाहुबली स्वामीकी मूर्ति इसका ज्वलन्त निदर्शन है । यह मूर्ति आज भी दुनियाकी आश्चर्यजनक वस्तुओंमेंसे एक है । मंदिरोंके अतिरिक्त गंगराजाओंने मण्डप और स्तम्भोंका भी निर्माण कराया था । जैन मण्डप पाँच स्तम्भके होते थे, चारों कोनोंपर स्तम्भ लगानेके अतिरिक्त बीचमें भी स्तम्भ लगाया जाता था और इस बीच वाले स्तम्भको विशेषता यह थी कि वह ऊपर छतमें इस
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy