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________________ जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति ९९ प्रकार फिट किया जाता था जिससे तली मेंसे रूमाल आर-पार हो सकता था । ये स्तम्भ मानस्तम्भ और ब्रह्मदेव स्तम्भ, इन दो भेदोंमें विभक्त थे । ई० स० १००४ में जब गंगनरेशोंकी राजधानी तलकादको चोल राजाओंने जीत लिया तो फिर इस वंशका प्रताप क्षीण हो गया । इसके पश्चात् दक्षिण भारतमें होय्सल वंशका राज्य प्रतिष्ठित हुआ । इस वंशकी उन्नति भी जैन गुरुओं की कृपासे हुई थी। इस वंशका पूर्वज राजा सल था । कहा जाता है कि एक समय यह राजा अपनी कुलदेवी के मंदिर में सुदत्त नाम जैन साधुसे विद्या ग्रहण कर रहा था, इतनेमें वनसे निकलकर एक बाघ सलको मारनेके लिये झपटा। साधुने एक डण्डा सलको देकर कहा - 'पोप सल' - मारसल । सलने उस susसे बाघको मार डाला और इस घटनाको स्मरण रखनेके लिये उसने अपना नाम पोपसल रखा, आगे जाकर यही होय्सल हो गया । गंगवंशके समान इस वंशके राजा भी विट्टिमदेव तक जैन धर्मानुयायी रहे और जैनधर्मके प्रसारके लिये निरन्तर उद्योग करते रहे । जब रामानुजाचार्य के प्रभाव में आकर विट्टिमदेव वैष्णव हो गया, तो उसने अपना नाम विष्णुवर्द्धन रखा । इसकी पहली धर्मपत्नी शान्तलदेवी कट्टर जैनी थी। उसीके प्रभावके कारण इस राजाने जैनधर्म के अभ्युदय के लिए अनेक कार्य किये । विष्णुवर्द्धनका मंत्री गंगराज तो जैनधर्मका स्तम्भ था । श्रवणबेलगोलके शिलालेखों में कई शिलालेख उनकी दानवीरता और धार्मिकताकी दुहाई देते हैं । विष्णुवर्द्धनके उत्तराधिकारी नरसिंह प्रथमके मंत्री हुल्लासने भी इस धर्मको दक्षिण में फैलानेका प्रयत्न किया । वस्तुतः मैसूर प्रांतमें इन दोनों मंत्रियोंने तथा चामुण्डरायने जैनधर्म के प्रसारके लिये अनेक कार्य किये हैं । होय्सलके पश्चात् बड़े राजवंशोंमें राष्ट्रकूटका नाम आता है, इस वंशके प्रतापी राजाओं के आश्रयसे जैनधर्मका अच्छा अभ्युदय हुआ । मान्यखेट इनकी राजधानी थी, इस वंश में अनेक राजा जैनधर्मानुयायी हुए हैं और सभीने अपने-अपने शासन काल में जैनधर्मकी प्रभावना की है । अमोघवर्ष प्रथमका नाम दि० जैनधर्मकी उन्नति करने वालोंमें बड़े गौरव के साथ लिया जाता है । यह राजा दि० जैनधर्मका बड़ा भारी श्रद्धालु था, इसने अन्तिम अवस्थामें राज-पाट छोड़कर जिनदीक्षा अपने गुरु जिनसेनाचार्य से ले ली थी । अमोघवर्षने जिनसेनाचार्यके शिष्य गुणभद्राचार्यको भी प्रश्रय दिया था । सम्राट् अमोघवर्षने अपने उत्तराधिकारी कृष्णराज द्वितीय गुणभद्राचार्यको गुरुके लिये नियुक्त किया था । श्रवणबेलगोलकी पार्श्वनाथवसति शिलालेखसे प्रकट है कि सम्राट् कृष्णराजकी राजसभामें जैन गुरुओंका आगमन होता था तथा वह यथोचित सत्कार करते थे । इस वंश में उत्पन्न हुए चारों इन्द्र राजाओंने जैनधर्मको धारण किया था तथा उसके प्रचार और प्रसारके लिए अनेक यत्न भी किये थे । यद्यपि अन्तिम राजा इन्द्रको राज्यकी व्यवस्था करनेमें पूर्ण सफलता नही मिली थी, जिससे उसने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली थी । कलचुरि वंश के नरेशोंने तामिल देशपर चढ़ाई की थी और वहाँके राजाओंको परास्त करके अपना शासन स्थापित किया था। ये राजा जैनधर्मके अनुयायी थे, इनके पहुँचनेसे तामिल देश में जैनधर्मका प्रसार हुआ था। इस वंशके राजाओंका राष्ट्रकूट नरेशोंसे घनिष्ठ सम्बन्ध था, इनमें परस्पर वैवाहिक सम्बंध भी हुए थे ।
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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