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________________ जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति ९७ पश्चिममें कदम्ब वंशके राज्य इस प्रांत में स्थापित हुए । कदम्ब वंशके अनेक शिलालेख उपलब्ध हैं, जिनमें इस वंशके राजाओं द्वारा जैनोंको दान देनेका उल्लेख है । इस वंशका धर्म जैन था । कदम्बवंशके समान चालुक्य वंशके राजा भी जैनधर्मानुयायी थे । पल्लव वंशके राजाओं के जैन होनेके सम्बन्ध में ऐतिहासिक उल्लेख नहीं मिलता है पर भगवान् नेमिनामका विहार पल्लव देशमें होनेसे तथा उस समयके समस्त दक्षिणके वातावरणको जैनधर्मसे अनुप्राणित होनेके कारण प्राचीन पल्लव वंश भी जैनधर्मका अनुयायी रहा होगा । चालुक्य नरेशोंने अनेक नवीन जैन मन्दिर बनवाये तथा उन्होंने अनेक मन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराया था । कन्नड़के प्रसिद्ध जैन कवि पम्पका भी सम्मान इस वंशके राजाओं द्वारा हुआ था । गंगवंश-कर्णाटक प्रांतमें जैनधर्मके प्रसारकोंमें इस वंशके राजाओंका प्रमुख हाथ है । इतिहास बतलाता है कि दक्षिण भारतीय गंगराजाओंके पूर्वज गंगानद- प्रदेशवासी इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय थे। इनकी सन्तान परम्परामें दडिग और माधव नामके दो शूरवीर व्यक्ति उत्पन्न हुए, जिन्होंने पेरूर नामक स्थानपर जाकर आचार्य सिंहनन्दीका शिष्यत्व ग्रहण किया । उस समय पेरूर जैन संस्कृतिका प्रमुख केन्द्र था, यहाँ पर जैन मन्दिर और जैन संघ विद्यमान था । आचार्यने इन दोनोंको राजनीति और धर्मशास्त्रकी शिक्षा देकर पूर्ण निष्णात बना दिया तथा पद्मावतीदेवीसे उनके लिए वरदान प्राप्त किया । आचार्यकी शिक्षा और वरदानके प्रभावसे इन दोनों वीरोंने अपना राज्य स्थापित कर लिया तथा कुवलालमें राजधानी स्थापित कर गंगवाडी प्रदेशपर शासन किया। गंगराजाओंका राजचिह्न मदगजेन्द्र लाञ्छन और उनकी ध्वजा पिच्छ चिन्ह अंकित थी । उस समय जैनधर्म राष्ट्रधर्म था, और इसके गुरु केवल धार्मिक ही गुरु नहीं थे, बल्कि राजनैतिक गुरु भी थे । दगिने जैनधर्मके प्रसारके लिये मंडलि नामक स्थानपर एक लकड़ीका भव्य जिनालय निर्माण कराया, जो शिल्पकलाका एक सुन्दर नमूना था । क्योंकि उस युग के मन्दिर केवल दर्शकों को भक्ति पिपासाको ही शान्त नहीं करते थे, बल्कि धर्म, साहित्य, संस्कृति के प्रचार के प्रमुख केन्द्र स्थान भी माने जाते थे । गंगराजाओंमें अवनीतके गुरु जैनमुनि कीर्तिदेव और दुर्विनीतके आचार्य पूज्यपाद थे । इस वंशका एक राजा मारसिंह द्वितीय था, यह इतना पराक्रमी और साहसी था कि इसने चेर, चोल और पाण्ड्य वंशोंपर विजय प्राप्त कर ली थी । जीवनके अन्तिम समय में इसे संसारसे विरक्ति हो गई थी, जिससे इसने विपुल ऐश्वर्य के साथ राज्यपद त्याग दिया और धारबार प्रान्त के बांकापुर नामक स्थानमें अपने गुरु अजितसेनाचार्य के सम्मुख समाधिपूर्वक प्राणत्याग किया था । गंगवंशके २१ वें राजा राचमल्ल सत्यवाक्यके शासन कालमें उसके मंत्री और कवि प्रतिष्ठा कराई थी । वैरीकुलकालदण्ड, सत्य चामुण्डरायने श्रवणबेलगोल स्थान में श्रीगोमट्टेश्वरकी विशाल प्रतिमाकी चामुण्डरायकी वीरमार्त्तण्ड, चूड़ामणि, समरधुरन्धर, त्रिभुवन वीर, युधिष्ठिर अनेक उपाधियाँ थी । मन्त्रि प्रवर चामुण्डराय जैनधर्मके बड़े भारी उपासक थे, इन्होंने अपना गुरु आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त - चक्रवर्तीको माना है । वीरताके साथ विद्वत्ता भी इनमें पूरी थी, संस्कृत और कन्नड़ दोनों ही भाषाओंपर पूर्ण अधिकार था । चारित्रसार संस्कृत भाषामें रचा गया इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है, कन्नडमें इन्होंने त्रिषष्ठि लक्षण महापुराण १३
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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