SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दक्षिण भारतमें जैनधर्मका प्रवेश और विस्तार दक्षिण भारतके इतिहास निर्माणमें जैन संस्कृतिका महत्त्वपूर्ण स्थान है । इस संस्कृतिका इस भूभागके राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और साहित्यिक जीवनपर अमिट प्रभाव पड़ा है। यद्यपि जैनधर्मके सभी प्रवर्तक उत्तर भारतमें उत्पन्न हुए हैं, पर दक्षिणमें इस धर्मका प्रवेश प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथके समयमें ही हो गया था। ऐसे अनेक ऐतिहासिक सबल प्रमाण वर्तमान हैं, जिनसे प्रागैतिहासिक कालमें दक्षिणभारतमें जैनधर्मका अस्तित्व सिद्ध होता है। मदुरा और रामनदसे खुदाईमें ई० पू० ३०० के लगभगका प्राप्त शिलालेख इस बातको सिद्ध करता है कि जैनधर्म दक्षिण भारतमें ई० पू० ३०० से पहले उन्नत अवस्थामें था। यह ब्राह्मी लेख अशोक लिपिमें लिखा गया है, इसमें मधुराई, कुम त्तुर आदि कई शब्द तामिल भाषाके भी मिलते हैं । यद्यपि अब तक इस लेखका स्पष्ट वाचन नहीं हो सका है, किन्तु इसी प्रकारके अन्य लेख भी मारूगलतलाई, अनमैलिया, तिरूपरन्नकुरम् आदि स्थानोंमें मिले हैं; जिनके आस-पास तीर्थंकरोंकी भग्न मूर्तियाँ तथा जैन मन्दिरोंके ध्वंसावशेष भी प्राप्त हुए है, जिससे पुरातत्त्वज्ञोंका अनुमान है कि ये सभी लेख जैन हैं। अलगामलकी खुदाईमें प्राप्त जैन मूत्तियाँ भी इस बातकी साक्षी हैं कि दक्षिण भारतमें यह.धर्म ई० पू० ३०० के पहले एक कोनेसे दूसरे कोने तक फैल गया था जिससे कि जैन स्थापत्य और मूर्तिकला उन्नत अवस्था में थी।' लंकाके राजा धातुसेन (४६१-४७९ ई०) के समयमें स्थविर महानाम द्वारा निर्मित महावंश नामक बौद्ध काव्यसे पता चलता है कि ई० पू० ५०० के पहले दक्षिण भारतमें जैनधर्मका पूर्ण प्रचार था । उस काव्यमें बताया गया है कि राजा पाण्डुगभ्यने अनुराधपुरमें अपनी राजधानी ई० पू० ४३७ में बसाई थी। इस नगरमें विभिन्न प्रकारके सुन्दर भवनोंका निर्माण कराया गया था। राजाने एक 'निग्गन्थ२ कुबन्ध' नामका सुन्दर जैन चैत्यालय बनवाया था तथा इस नगरमें ५०० विभिन्न धर्मानुयायियोंके बसनेका भी प्रबन्ध किया था। इस कथनसे स्पष्ट है कि जैनधर्म लंकामें ई० पू० ५०० के पहले विद्यमान था। जैन प्रचारक यद्यपि लंकाको समुद्र मार्गसे गये थे, पर लौटते समय वे स्थल मार्ग द्वारा दक्षिणके रास्तेसे आये थे, यह बात तामिल और बौद्ध साहित्यसे स्पष्ट है । अतः लंकामें जैनधर्मके प्रचारके साथ-साथ दक्षिण भारतमें भी जैनधर्मका प्रचार ई० पू० ५०० के लगभग या इससे पहले हुआ होगा। राजावली कथा एक प्रामाणिक ऐतिहासिक काव्य माना जाता है। इसमें बताया गया है कि विशाख मुनिने चोल और पाण्ड्य प्रान्तोंमें भ्रमण कर वहाँके जैन चैत्यालयोंकी वन्दना 1. See Madras Epigraphical Reports 1907, 1910, 2. See Studies in South Indian Jainism P. 33,
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy