SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति की थी तथा वहाँके निवासी श्रावकोंको जैनधर्मका उपदेश दिया था। इससे स्पष्ट है कि भद्रबाहु स्वामीके पहले भी जैनधर्म दक्षिणमें था, अन्यथा विशाखमुनिको जिनमन्दिर और जैन श्रावक कैसे मिलते ? तामिल साहित्यके प्राचीन व्याकरण अगथियम' और उससे प्रभावित तौल्काप्यामके अध्ययनसे पता लगता है कि ये ग्रन्थ एक जैनाचार्य द्वारा रचे गये हैं । विद्वानोंने इनका रचनाकाल ई० पू० ४०० माना है। अतएव स्पष्ट है कि ई० पू० ४०० के लगभग दक्षिण भारतमें जैनधर्मका व्यापक प्रचार था। संगम कालीन तामिल काव्य 'मणिमेरवल' और 'सीलप्पड्डिकारम् से ज्ञात होता है कि इस युगमें जैनधर्म समुन्नत अवस्थामें था । 'संगम' युगके समय निर्धारणके सम्बन्धमें विद्वानोंमें मतभेद है। कुछ लोग ई० पू० २०० के पूर्वके समयका नाम संगम या प्राथमिक युग बतलाते हैं तथा कतिपय विद्वान् ई० पू० चोथी शताब्दीसे ई० दूसरी शताब्दी तकके काल समूहको । यदि इस विवादमें न भी पड़ा जाय तो भी इतना तो सुनिश्चित है कि भद्रबाहु स्वामीके दक्षिण पहुँचनेके पूर्व ही जैनधर्म वहाँ विद्यमान था। कन्नड़ रामायणमें बताया गया है कि श्रीमुनिसुव्रत भगवान्के तीर्थंकर कालमें श्री रामचन्द्रजीने दक्षिण भारतकी यात्रा की थी, इस यात्रामें उन्होंने जैन मुनि और जैन चैत्यालयों की वन्दना की थी। भागवत पुराणमें भगवान् ऋषभदेव के परिभ्रमणकी एक कथा आई है। उस कथामें बताया गया है कि जिस प्रकार कुम्हारका चाक स्वयं चलता है, उसी प्रकार भगवान् ऋषभदेवका शरीर कोंक, वेंकट इत्यादि दक्षिण कर्णाटकके प्रदेशोंमें गया। कुटक पहाड़से सटे हुए जंगलमें उन्होंने नग्न होकर वहाँ तपस्या की। अचानक जंगल दवाग्निसे भस्म हो गया और कोंक, वेंकट और कुटकके राजाओंने ऋषभदेवके धर्म मार्गको ग्रहण किया। इससे स्पष्ट है कि कुटक ग्राम, हटेंगडि, कोंक आदि दक्षिण भारत के प्रदेशोंमें जैनधर्मका प्रचार प्राचीन कालमें ही था । उपर्युक्त स्थानोंमें हटेगडि आज भी जैनियोंका पवित्र क्षेत्र माना जाता है। विष्णुपुराणमें कहा गया है कि नाभि और मेरुके पुत्र ऋषभने बड़ी योग्यता और बुद्धिमानीसे शासन किया तथा अपने काल में अनेक यज्ञ किये । चतुर्थावस्थामें वह अपना राजपाट अपने बड़े पुत्र भरतको सौंप कर सन्यासी हो गये और दक्षिण भारतमें स्थित पुलस्त्य ऋषिके आश्रममें निवास किया। इससे स्पष्ट है कि प्रथम तीर्थंकर दक्षिणमें गये थे। हिन्दू पुराणोंमें एक संवाद आता है, जिसमें बताया गया है कि देव और असुरोंके युद्धके बीच जैनधर्मका उपदेश विष्णुने दिया था-"बृहस्पतिसाहाय्यार्थं विष्णुना मायामोहसमुत्पादनम् दिगम्बरेण मायामोहेन दैत्यान् प्रति जैनधर्मोपदेशः, दानवानां मायामोहमोहितानां गुरुणा दिगम्बर जैनधर्मदीक्षादानम्" । अर्थात् देव-मन्त्री बृहस्पतिकी सहायताके लिये विष्णु 1. See Jaina Gazette, Vol. XIX, P. 75 2. Buddhistic Studies, PP. 3, 68. ३. जैनसिद्धान्त-भास्कर भाग १० किरण १ तथा भाग ६ पृ० १०२ । ४. विष्णुपुराण अध्याय १७, मत्स्यपुराण अ० २४, पद्मपुराण अध्याय १ और देवीभागवत स्कन्ध ४, अ० १३
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy