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________________ २८ कर्मप्रकृति वे अघ्र वबंधिनी कहलाती हैं । ऐसी प्रकृतियां ऊपर कही गई ध्र वबंधिनी सैंतालीस प्रकृतियों से शेष रही तिहत्तर प्रकृतियां हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं औदारिकद्विक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, विहायोगतिद्विक, गोत्रद्विक, वेदनीयद्विक, हास्यादि युगलद्विक, वेदत्रिक, आयुचतुष्क, गतिचतुष्क, आनुपूर्वीचतुष्क, जातिपंचक, संस्थानषट्क, संहननषट्क, वसादि बीस (त्रसदशक और स्थावरदशक), उच्छ्वास, तीर्थंकर, आतप, उद्योत और पराघात । ये तिहत्तर प्रकृतियां अपने-अपने बंध के कारणों का सद्भाव होने पर भी बंध को अवश्य ही प्राप्त नहीं होती हैं, अर्थात् कभी बंधती हैं और कभी नहीं बंधती हैं । कादाचित्क बंध होने के कारणों का स्पष्टीकरण निम्नप्रकार है-- पराघात और उच्छ्वास नामकर्म का अविरति आदि अपने बंधकारण के होने पर भी अपर्याप्तप्रायोग्य बंधकाल में बंध का अभाव रहता है और पर्याप्तप्रायोग्य बंधकाल में ही उनका बंध होता है। एकेन्द्रियप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने से ही आतप नामकर्म का बंध होता है और उद्योत का भी तिर्यग्गतिप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने पर ही बंध होता है। जिन (तीर्थंकर) नामकर्म का सम्यक्त्व रूप अपने बंधकारण के विद्यमान रहने पर भी कदाचित् ही बंध होता है और आहारकद्विक का संयम रूप निज बंधकारण के विद्यमान होने पर भी कदाचित् बंध होता है और शेष औदारिकद्विक आदि प्रकृतियों का सविपक्ष प्रकृति होने से ही कदाचित् बंध होता है और कदाचित् नहीं होता है। यद्यपि यत्किंचित् बंधहेतु के सद्भाव में बंध का अभाव प्राप्त होता है और बंधकारण के रहने तक बंध का अभाव असम्भव है, तथापि मिथ्यात्व आदि गिनाये गये सामान्य बंधकारणों के सद्भाव में अवश्य ही बंध होने से ध्र वबंधित्व है और इसके विपरीत अवस्था में अर्थात् सामान्य बंधकारणों के रहने पर भी बंध नहीं होना अध्र वबंधित्व है, यह ध वबंधी और अध वबंधी की परिभाषा का रहस्य है।' ३. ध वोदया प्रकृतियां उदयकालव्यवच्छेदादग्ध्रुिवो निरन्तर उदयो यासां ता ध्रुवोदयाः--उदयकाल के व्यवच्छेद होने से पूर्व तक ध्र व रूप से जिनका निरंतर उदय रहे, वे ध्र वोदया प्रकृति कहलाती हैं। ऐसी प्रकृतियों की संख्या सत्ताईस है--निर्माण, स्थिर, अस्थिर, तेजस, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, शुभ और अशुभ नामकर्म, ये नामकर्म की वारह प्रकृतियां तथा ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरण चतुष्क और मिथ्यात्व ये घातिकर्मों की पन्द्रह प्रकृतियां, इस प्रकार सब मिलाकर (१२+१५=२७) सत्ताईस प्रकृतियां ध्र वोदया है। १. उक्त कथन का आशय यह है यत्किंचित् बंधकारण के रहने पर बंध नहीं होकर अपने निश्चित सामान्य बंधकारण के रहने पर जिसका निश्चित रूप से बंध होता है और निश्चित सामान्य बंधकारण के होने पर भी जिसका बंध नहीं होता है--वही कर्म प्रकृतियों के ध्रुवबंधित्व और अध्रुवबंधित्व के भेद का कारण है। २. निम्माण थिराथिरतेय कम्मवण्णाइ अगुरुसुहमसुहं । नाणंतराय दसगं दंसणचउमिच्छनिच्चुदया। -~-पंचसंग्रह १३४
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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