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________________ बंधनकरण पूर्वोक्त सत्ताईस प्रकृतियों में से मिथ्यात्व प्रकृति पहले मिथ्यात्व गणस्थान तक और शेष ज्ञानावरणपंचक आदि चौदह घातिप्रकृतियां क्षीणमोह गुणस्थान के अंतिम समय तक ध्र व रूप से उदय रहती हैं तथा नामकर्म की निर्माण आदि वारह प्रकृतियां तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थान के अंतिम समय तक ध्रुव रूप से उदय में रहती हैं। ४. अधा वोदया प्रकृतियां व्यवच्छिन्नोदया अपि सत्यो याः प्रकृतयो हेतुसंपत्त्या भूयोऽप्युदयमायान्ति ता अध्रुवोदयाः-- उदय का विच्छेद होने पर भी जो प्रकृतियां उदय कारणों की प्राप्ति से फिर भी उदय में आ जाती हैं, वे अध्र वोदया कहलाती हैं । ऐसी अध्र वोदया प्रकृतियां पंचानव है--स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, इन चार प्रकृतियों से रहित अध्र वबंधिनी उनहत्तर प्रकृतियां, मिथ्यात्व के विना मोहनीयकर्म की ध्र वबंधिनी अठारह प्रकृतियां तथा पांच निद्रायें, उपघात नामकर्म, मिश्र मोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय, कुल मिलाकर ये (६९+१८+५+१+१+१=९५) पंचानवै प्रकृतियां अध्र वोदया हैं। शंका--इस प्रकार से तो मिथ्यात्व प्रकृति भी अध्र वोदया क्यों न मानी जाये ? क्योंकि सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर व्युच्छिन्न हुआ भी उसका उदय मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त होने पर पुनः होने लगता है। समाधान--जिन प्रकृतियों का गुणप्रत्यय से उदयविच्छेद जिन गुणस्थानों में नहीं होता है, किन्तु द्रव्य, क्षेत्र आदि की अपेक्षा से उन्हीं गुणस्थानों में कदाचित् वह हो और कदाचित् न हो, ऐसी प्रकृतियों को अध वोदया कहा गया है। जैसे--क्षीणमोह गुणस्थान तक निद्रा प्रकृति की उदयव्युच्छित्ति नहीं होती है, फिर भी वहाँ तक उसका कादाचित्क उदय होता है, सर्वदा नहीं। किन्तु मिथ्यात्व प्रकृति तो अपने उदयविच्छेद होने तक निरंतर उदय को प्राप्त रहती है, इसीलिये उसे अध्र वोदया नहीं माना जा सकता है। शंका-इस प्रकार तो मिश्रमोहनीय प्रकृति भी मिश्र गुणस्थान में निरन्तर उदय को प्राप्त रहती है, इसलिये उसे ध्रुवोदया होना चाहिये। समाधान--नहीं। क्योंकि गुणप्रत्यय के द्वारा उदय-विच्छेद से पहले उदय के होने और नहीं होने की अपेक्षा उसको अध वोदया कहा गया है। यदि एक गुणस्थान के अवच्छेद से उदय के होने और नहीं होने की अपेक्षा अध्र वोदयपना कहा जाता, तभी उक्त दोष होता। ५. धावसत्ताका प्रकृतियां विशिष्टगुणप्राप्ति विना ध वा निरंतरा सत्ता यासां ता धवसत्ताका:--विशिष्ट गुणस्थान की प्राप्ति के बिना ध्रुव रूप से निरन्तर जिनकी सत्ता बनी रहती है, उन्हें ध्र वसत्ताका प्रकृति कहते हैं। ऐसी प्रकृतियां एक सौ तीस हैं। यथा-वसबीस (त्रसदशक, स्थावरदशक), वर्णादि बीस, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, तेजस-तैजसवन्धन, तैजस-कार्मणबन्धन, कार्मण-कार्मणबन्धन, तेजससंघातन और कार्मणसंघातन रूप तैजसकार्मणसप्तक और धवबंधिनी सैंतालीस प्रकृतियों में से वर्णचतुष्क
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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