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________________ बंधनकरण १. ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां निहेतुसम्भवे यासामवश्यंभावी बन्धस्ता ध्रुवबन्धियः -- जिन प्रकृतियों का अपने बंध के कारण मिलने पर बंध अवश्य होता है, वे ध्रुवबंधिनी हैं । ३७ ज्ञानावरण की पांच अंतराय की पांच, दर्शनावरण की नौ, सोलह कषाय, मिथ्यात्व, भय, गुसा, ये अड़तीस घातिकर्मों की प्रकृतियां तथा अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तैजसशरीर, वर्णादि चतुष्क और कार्मणशरीर ये नामकर्म की नो प्रकृतियां, कुल मिलाकर ये ( ३८ +९= ४७ ) सैंतालीस प्रकृतियां ध्रुवबंधिनी हैं ।" क्योंकि इन प्रकृतियों के वन्धकाल का व्यवच्छेद होने तक अर्थात् बंधक का एवं बंध के निमित्तों का सद्भाव रहने तक अर्थात् बंधव्युच्छित्ति न होने तक ध्रु रूप से बंध होता है । इनमें मिथ्यात्व प्रकृति मिथ्यात्व गुणस्थान के अंतिम समय तक निरन्तर बंधती है, उससे (पहले गुणस्थान के अतिरिक्त आगे के गुणस्थानों में ) उसके उदय का अभाव होने से उसका ( मिथ्यात्व का ) बंध नहीं होता है । क्योंकि मिथ्यात्व का जंव तक वेदन किया जाता है अर्थात् उदय रहता है, तब तक ही बंधता है । आगम का भी यह वचन है-- 'जे वेयइ से बज्झइ' अर्थात् जव तक उदय रहता है, तव तक बंध होता रहता है । २ अनन्तानुबंधीचतुष्क और स्त्यानद्धित्रिक ये सात प्रकृतियां सासादन गुणस्थान तक निरन्तर बंधी रहती हैं। उससे परे अनन्तानुबंधी कषायों का उदय नहीं होने से उक्त प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान ( चौथे गुणस्थान ) तक, प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क देशविरति गुणस्थान ( पांचवें गुणस्थान ) तक और निद्रा व प्रचला प्रकृति अपूर्वकरण गुणस्थान ( आठवें गुणस्थान ) के प्रथम भाग तक निरन्तर बंधती रहती हैं। उसके आगे उनके बंधयोग्य अध्यवसायों ( भावों) का अभाव होने से उनका बंध नहीं होता है । इसी प्रकार नामकर्म की नौ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां ( अगुरुलघु आदि कार्मणशरीर पर्यन्त ) अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग पर्यन्त और भय व जुगुप्सा अंतिम समय तक, संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ अनिवृत्तिगदरसंप राय गुणस्थान (नौवें गुणस्थान ) तक निरन्तर बंधती रहती हैं, उसके आगे बादर कषाय के उदय का अभाव होने से उनका बंध नहीं होता है । ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक और दर्शनावरणचतुष्क ये चौदह प्रकृतियां सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान ( दसवें गुणस्थान ) तक निरन्तर बंधती रहती हैं। उसके परे कषायों के उदय का अभाव होने से उनका बंध नहीं होता है । २. अध्रुवबंधिनी प्रकृतियां निबंध हेतुसम्भवेऽपि भजनीयबंधा अध्रुवबंधिन्यः -- जो प्रकृतियां अपने-अपने बंध कारणों के सम्भव होने पर भी भजनीय बंधवाली हैं अर्थात् जिनका कभी बंध होता है और कभी नहीं होता है, १. नाणंतरायदंसण धवबंधिकःसायमिच्छभयकुच्छा । अगुरुलघु निर्मिण तेयं, उवघायवण्णचउकम्मं ॥ गो. कर्मकांड १२४ में भी इन्हीं प्रकृतियों को ध्रुवबंधिनी बताया है। २. स्त्यानद्धित्रिक - निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानद्ध । -- पंचसंग्रह १३३
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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