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________________ कर्मप्रकृति पूर्वगृहीत आहारक पुद्गलों का अपन ही गृह्यमाण आहारक पुद्गलों के साथ जो सम्बन्ध होता है, वह आहारक-आहारकबंधन है। उन्हीं पूर्वगृहीत और गृह्यमाण आहारक पुद्गलों का पूर्वगृहीत और गृह्यमाण तैजस पुद्गलों के साथ जो सम्बन्ध होता है, वह आहारक-तैजसबंधन है। उन्हीं पूर्वगृहीत और गृह्यमाण आहारक पुद्गलों का पूर्वगृहीत और गृह्यमाण कार्मण पुद्गलों के साथ जो सम्वन्ध होता है, वह आहारक-कार्मणबंधन है। गृहीत और गृह्यमाण औदारिक पुद्गलों का तैजस पुद्गलों एवं कार्मण पुद्गलों का जो परस्पर सम्बन्ध होता है, वह औदारिक-तैजस-कार्मणबंधन है । इसी प्रकार वैक्रिय-तैजस-कार्मण और आहारक-तैजस-कार्मण इन दोनों वन्धनों के स्वरूप को भी समझ लेना चाहिये। पूर्वगृहीत तैजस पुद्गलों का वर्तमान में गृह्यमाण अपने ही तैजस पुद्गलों के साथ जो सम्बन्ध होता है, वह तैजस-तैजसवन्धन है। उन्हीं पूर्वगृहीत और गृह्यमाण तैजस पुद्गलों का पूर्वगृहीत और गृह्यमाण कार्मण पुद्गलों के साथ जो संबंध होता है, वह तैजस-कार्मणवन्धन है। पूर्वगृहीत कार्मण पुद्गलों का अपने ही गृह्यमाण कार्मण पुद्गलों के साथ जो सम्बन्ध होता है, वह कार्मणकार्मणबंधन है। शंका-जो आचार्य परपुद्गलों के संयोग रूप बंधन होते हुए भी उसकी विवक्षा न करके पांच ही वन्धन मानते हैं, उनके मत में संचातन नामकर्म भी पांच सम्भव है। किन्तु जो आचार्य वन्धन के पन्द्रह भेद मानते हैं, उनके मत में 'नासंहतस्य बंधनमिति' संघात रहित का बंधन सम्भव नहीं, इस न्याय के अनुसार बंधन की तरह संघातन नामकर्म के भी पन्द्रह भेद प्राप्त होते हैं। इसलिये ऊपर कही गई एक सौ अट्ठावन कर्म प्रकृतियों की संख्या घटित नहीं होती है। ___समाधान--यह कहना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि उनके मत में बंधन के अनुकूल पुद्गलों का एकीकरण करना, यह संघातन का लक्षण नहीं है। किन्तु औदारिक आदि शरीरों की रचना के अनुकल पुद्गलों का एकीकरण करना, यह संघातन का लक्षण है, इसलिये कोई दोष नहीं है। इस प्रकार सव कर्मों की उत्तर प्रकृतियों के लक्षण समझना चाहिये। कर्मप्रकृतियों का वर्गीकरण __ अव इन प्रकृतियों की-१. ध्रुवबंधित्व, २. ध्रुवोदयत्व, ३. ध्रुवसत्ताकत्व, ४. सर्वघातित्व, ५. परावर्त्तमानत्व तथा ६. अशुभत्व तथा इनकी प्रतिपक्षी, ७. अध्र वबंधित्व, ८. अध्रुवोदयत्व, ९. अध्रुवसत्ताकत्व, १०. देशघातित्व, ११. अपरावर्त्तमानत्व और १२. अशुभत्व तथा १३. पुद्गलविपाकित्व, १४. भवविपाकित्व, १५. क्षेत्रविपाकित्व, १६. जीवविपाकित्व भेदों की अपेक्षा और १७. स्वानुदयबंधी, १८. स्वोदयबंधी, १९. उभयबंधी, २०. समक (युगपद्) व्यवच्छिद्यमानबंधोदय, २१. क्रमव्यवच्छिद्यमानबंधोदय, २२. उत्क्रमव्यवच्छिद्यमानवन्धोदय, २३. सान्तरबंध, २४. सान्तर-निरन्तरबंध, २५. निरन्तरबंध, २६ . उदयसंक्रमोत्कृष्ट, २७. अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट, २८. उदयवन्धोत्कृष्ट, २९. अनुदयबंधोत्कृष्ट, ३०. उदयवती और ३१ . अनुदयवती संज्ञाओं के द्वारा (संज्ञाओं की अपेक्षा) जो विशेषता है, अब उसका विचार किया जाता है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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