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________________ २४ कर्मप्रकृति अन्तरायकर्म को उत्तरप्रकृतियां दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यान्तराय के भेद से अन्तरायकर्म की पांच उत्तरप्रकृतियां हैं। १. यदुदयात् सति विभवे समागते च गुणवति पात्रे दत्तमस्मै महाफलमिति जानन्नपि दातुं मोत्सहते तद्दानान्तरायं-जिसके उदय से धन-वैभव होने पर, गुणवान् पात्र के उपस्थित होने पर और उसके लिये दिया गया दान महान फल वाला होता है, ऐसा जानता हुआ भी व्यक्ति दान देने के लिये उत्साहित नहीं होता है, वह दानान्तरायकर्म है । २. यदुदयाद्दातुर्ग हे विद्यमानमपि देयं गुणवानपि याचमानोऽपि न लभते तल्लाभान्तरायंजिसके उदय से दाता के घर में विद्यमान भी देय वस्तु को मांगने वाला गुणवान पुरुष भी उसे प्राप्त न कर सके, वह लाभान्तरायकर्म कहलाता है । ३-४. यदुदयाद्विशिष्टाहारादि प्राप्तावप्यसति च प्रत्याख्यानादिपरिणामे कार्पण्यानोत्सहते भोक्तुं तद्भोगान्तरायं--जितके उदय से विशिष्ट आहारादि की प्राप्ति होने पर भी और प्रत्याख्यान (त्याग) आदि के परिणाम नहीं होने पर भी कृपणतावश भोगने के लिये मनुष्य उत्साहित न हो सके, उसे भोगान्तरायकर्म कहते हैं। इसी प्रकार उपभोगान्तरायकर्म का भी अर्थ जान लेना चाहिये । लेकिन इतना अन्तर (भेद) है कि जो एक वार भोगा जाये, वह भोग और जो बार-बार भोगा जाये, वह उपभोग कहलाता है। . ५. यदुवयात्सत्यपि नीजि शरीरे यौवनेऽपि वर्तमानोऽल्पप्राणो भवति तवीर्यान्तरायं-- जिसके उदय से शरीर के निरोग होने पर भी और यौवनावस्था होने पर भी व्यक्ति अल्पप्राण (हीनवल वाला) होता है, वह वीर्यान्तराय कर्म कहलाता है । बंध, उदय और सत्ता की अपेक्षा उत्तरप्रकृतियों की संख्या पूर्वोक्त नामकर्म की चौदह पिंडप्रकृतियों के पैंसठ अवान्तर भेदों के साथ आठ अप्रतिपक्षा और बीस सप्रतिपक्षा प्रकृतियों को मिला देने पर नामकर्म की तेरानवै प्रकृतियां हो जाती हैं। इनमें से बंध और उदय में बंधन और संघातन नामकर्म अपने-अपने शरीर नामकर्म के अन्तर्गत ही विवक्षित किये जाते हैं, पृथक् नहीं तथा वर्णादिचतुष्क भेदरहित सामान्य से ही विवक्षित किये जाते हैं. इसलिये बंधयोग्य प्रकृतियों का विचार करने के प्रसंग में नामकर्म की तेरानवै प्रकृतियों में से पांच बंधन और पांच संघातन एवं वर्णादि चतष्क की सोलह प्रकृतियों को घटा दने से सड़सठ प्रकृतियां ग्रहण की जाती हैं तथा मोहनीयकर्म की सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियां अधिकृत नहीं की जाती हैं । क्योंकि मिथ्यात्व कर्म के पुद्गलों के सम्यक्त्व उत्पादक यथाप्रवृत्त आदि तीन करणरूप परिणामों की विशुद्धिविशेष से तीन भेद रूप किये गये तीन पुंजो की शुद्ध, अर्धविशुद्ध और सर्वअविशुद्ध की अपेक्षा क्रम से सम्यक्त्व (शुद्ध), सम्यग्मिथ्यात्व (अर्ध विशुद्ध), मिथ्यात्व (सर्वाविशुद्ध) संज्ञा होती है। इसलिये बंधयोग्य एक सौ बीस प्रकृतियां होती हैं । उदय में एक सौ बाईस प्रकृतियां ग्रहण की जाती हैं। क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व का भी अपने-अपने रूप से उदय होता है ।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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