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________________ बंधनकरण २३ सुभग-दुर्भग--यदुदयादनुपकृदपि सर्वस्य मनःप्रियो भवति तत्सुभगनाम, तद्विपरीतं दुर्भगनाम, यदुवयादुपकारकृदपि जनस्य द्वेष्यो भवति--जिसके उदय से उपकार नहीं करने पर भी मनुष्य सबका मनोप्रिय होता है, वह सुभग नामकर्म है। इसके विपरीत दुर्भग नामकर्म कहलाता है कि जिसके उदय से उपकार करने वाला भी मनुष्य लोगों के द्वेष का पात्र होता है । तीर्थकर भी अभव्यों के लिये जो द्वेष के पात्र होते हैं तो उसमें तीर्थंकर के दुर्भग नामकर्म का निमित्त नहीं है, किन्तु इसमें अभव्यों का हृदयगत मिथ्यात्वदोष ही कारण है, ऐसा समझना चाहिये । आदेय-अनादेय--यदुदयाल्लोको यत्तदपि वचनं प्रमाणीकरोति, दर्शनसमनन्तरमेव चाभ्युत्थानाद्याचरति तदादेयनाम, तद्विपरीतमनादेयनाम, यदृदयादपपन्नमपि ब्रवाणो नोपादेयवचनो भवति, नाप्यभ्युत्थानादियोग्यः--जिसके उदय से जिस किसी भी वचन को लोक प्रमाण मानते हैं और जिसको देखने के अनन्तर आदर-सत्कार हेतु अभ्युत्थानादि का आचरण करते हैं, वह आदेय नामकर्म है और इसके विपरीत अनादेय नामकर्म है कि जिसके उदय से योग्य वचन को बोलता हुआ भी पुरुष उपादेय वचन वाला नहीं होता और न अभ्युत्थान आदि के ही योग्य होता है । ___ यशःकोति-अयशःकोति--तप, शौर्य, त्यागादि के द्वारा उपार्जन किय गये यश से जिसाक कीर्तन किया जाये, उसे यशःकीति कहते हैं । अथवा सामान्य रूप से ख्याति को यश और गुणों के कीर्तन रूप प्रशंसा को कीर्ति कहते हैं । अथवा एक दिशा में फैलने वाली प्रसिद्धि को कीर्ति कहते हैं एवं सर्व दिशा में फैलने वाली ख्याति यश कहलाती है । अथवा दान-पुण्य-जनित प्रसिद्धि को कीर्ति और पराक्रमजनित प्रख्याति को यश कहते हैं ।' ते यशःकीर्ती यदुदयाद्भवतस्तद्यशःकोत्तिनाम, तद्विपरीतमयशःकीर्तिनाम, यदुदयान्मध्यस्थस्यापि जनस्याप्रशस्तो भवति--वे यश और कीति जिस कर्म के उदय से होते हैं, वह यशःकीर्तिनाम है। इसके विपरीत अयशःकोति नामकर्म है कि जिसके उदय से मध्यस्थ भी रहने वाला मनुष्य लोकों द्वारा प्रशंसनीय नहीं होतप्रा है । इस प्रकार प्रतिपक्ष सहित प्रत्येक प्रकृतियों के लक्षण जानना चाहिये । इनमें से त्रसादि दस कृतियां त्रसदशक और स्थावरादि दस प्रकृतियां स्थावरदशक कहलाती हैं । गोत्रकर्म को उत्तरप्रकृतियां गोत्रकर्म की दो उत्तर प्रकृतियां हैं--उच्चगोत्र और नीचगोत्र । १. यदुदयादुत्तमजातिकुलबलतपोरूपैश्वर्यश्रुतसत्काराभ्युत्थानासनप्रदानाञ्जलिप्रग्रहादिसम्भवस्तदुच्चोत्रं--जिसके उदय से उत्तम जाति, कुल, वल, तप, रूप, ऐश्वर्य, शास्त्रज्ञान, सत्कार, अभ्युत्थान, आसनप्रदान और अंजलिप्रग्रह (हाथ जोड़ना) आदि संभव होता है, वह उच्चगोत्रकर्म है । २. यदुदयात् पुनर्जानादिसंपन्नोऽपि निन्दां लभते हीनजात्यादिसंभवं च तन्नीचर्गोत्रं-जिसके उदय से ज्ञानादि गुणों से सम्पन्न भी पुरुष निंदा को पाता है और हीन जाति, कुलादिक में उत्पन्न होता है, वह नीचगोत्रकर्म है। १. एक दिग्गामिनी कात्तिः सर्वदिग्गामुकं यशः। दानपुण्यभवा कीत्तिः पराक्रमकृतं यशः॥ .
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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