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________________ कर्मप्रकृति तेजस और कार्मण शरीर का आकार जीव के प्रदेशों के समान ही होता है, इसलिये उन दोनों शरीरों के (उस, उस नाम वाले) अंगोपांग सम्भव नहीं है। ५. बन्धन-बध्यतेऽनेनेति बंधनं, यदुदयादौदारिकादिपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परमेकत्वमुपजायते काष्ठद्वयस्येव जतुसम्बन्धात्-जिसके द्वारा बांधा जाये, उसे बंधन कहते हैं । अतः जिस कर्म के उदय से जैसे--लाख के संबंध से दो काष्ठों का सम्बन्ध हो जाता है, वैसे ही औदारिक आदि शरीरों के पूर्वगृहीत और गृह्यमाण (वर्तमान में ग्रहण किये जा रहे) पुद्गलों का परस्पर एकत्व होता है, वह बन्धन नामकर्म है । औदारिकवन्धन आदि के भेद से बन्धन नामकर्म पांच प्रकार का है। ६. संघातन--संघात्यन्ते गहीत्वा पिण्डीक्रियन्ते औदारिकादिपुद्गला येन तत्संघातनं-- जिसके द्वारा औदारिकादि शरीरों के पुद्गल' संघात किये जाते हैं, एक पिंड रूप बना दिये जाते हैं, वह संघातन नामकर्म है । औदारिकसंघातन आदि के भेद से यह कर्म भी पांच प्रकार का है। __ शंका--इस संघातन कर्म का क्या व्यापार (कार्य) है ? यदि पुद्गलों को एकत्रित करना मात्र इसका कार्य है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि पुद्गलों का संघात तो पुद्गलों के ग्रहण मात्र से ही सिद्ध हो जाता है, उसमें संघातन नामकर्म का कोई उपयोग नहीं है। यदि यह कहा जाये कि औदारिक आदि शरीरों की रचना का अनुकरण करने वाला संघातविशेष इस कर्म का व्यापार है, ऐसा सम्प्रदाय का (जैनदर्शन अथवा कर्मसिद्धान्त का) मत माना जाये तो वह ठीक नहीं है। क्योंकि तंतुओं के समुदाय को जैसे पट कहा जाता है, उसके समान औदारिक आदि वर्गणाओं के द्वारा उत्पन्न होने वाले पुद्गलसमुदाय को भी औदारिक शरीरादि में हेतु होने से संघातन के स्वरूप में किसी अधिक विशेष पद का आश्रय नहीं लिया गया है। समाधान--आपका कथन सत्य है। प्रतिनियत प्रमाण रूप औदारिक आदि शरीरों की रचना के लिये संघातविशेष अवश्य आश्रय करने योग्य होता है। इसलिये उसके निमित्तभूत तारतम्य का भागी होने से संघातन नामकर्म की सिद्धि होती है, इसलिये सम्प्रदाय का अभिप्राय ही युक्तिसंगत है।' ७. संहनन--संहननं नामास्थिरचनाविशेष:--हड्डियों की रचनाविशेष को संहनन कहते हैं। वह छह प्रकार का है-वज्रऋषभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका, सेवार्त । इनके लक्षण इस प्रकार हैं १. वज्रं कोलिका, ऋषभः परिवेष्टनपट्टः, नाराचमुभयतो मर्कटबन्धः ततश्च, द्वयोरस्नोरुभयतो मर्कटबन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्थ्ना परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयभेदिकोलिकाख्यवज्रनामकमस्थि यत्र भवति तद्वज्रर्षभनाराचसंज्ञमाद्यं संहननं--वज्र नाम कीलिका का है, परिवेष्टन १. अत: शरीर की रचना के लिये प्रतिनियत योग्य पुद्गलों को सन्निहित करना, एक दूसरे के पास व्यवस्थित रूप से स्थानापन्न करना, जिससे उन पुद्गलों की परस्पर में प्रदेशों के अनुप्रवेश से एकरूपता प्राप्त हो सके, यही उसका कार्य है। इसीलिये संघात नामकर्म पृथक् माना है। संघातन का अर्थ सामीप्य होना, सान्निध्य होना । पूर्वगृहीत और गृह्यमाण शरीर पुद्गलों का परस्पर बंधन तभी संभव है जब गृहीत एवं गृह्यमाण पुद्गलों का पारस्परिक सामीप्य हो। अर्थात् दोनों एक दूसरे के निकट होंगे तभी बंधन होना सम्भव है। २. औदारिक शरीर के अलावा अन्य वैक्रिय आदि शरीरों में हड्डियां नहीं होती हैं। अतः संहनन नामकर्म का उदय औदारिक शरीर में ही होता है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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