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________________ बंधनकरण उपभोग का नियामक जो परिणामविशेष है और उसका जो कारण रूप है, उससे गति नामकर्म की पृथक् सिद्धि होती है । " १५ जाति पांच प्रकार की हैं-- एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, पंचेन्द्रिय जाति । इसीलिये इनका विपाक-वेदन कराने वाला जाति नामकर्म भी पांच प्रकार का है। ३. शरीर -- शीर्यत इति शरीरं-- जो सड़े-गले, विखरे, उसे शरीर कहते हैं। शरीर के पांच भेद हैं- औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण । इसीलिये इन शरीरों के विपाक का वेदन कराने वाला शरीर नामकर्म भी पांच प्रकार का है । यदुदयादौदारिकशरीरयोग्यान् पुद्गलानादायौदारिकशरीररूपतया परिणमयति, परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सहान्योऽन्यानुगमरूपतया संबन्धयति तदौवारिकशरीरनाम - जिसके उदय से जीव औदारिक शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके औदारिक शरीर रूप से परिणमाता है और परिणमा करके जीवप्रदेशों के साथ परस्पर प्रवेश रूप से सम्बन्ध कराता है, वह औदारिकशरीर नामकर्म है । इसी प्रकार शेष शरीर नामकर्म के अर्थ ( लक्षण ) जान लेना चाहिये । ४. अंगोपांग -- शिर (मस्तक) आदि आठ अंग होते हैं -- "सीसमुरोयरपिट्ठी दो बाहू ऊरुया य अट्ठगा" शिर, उर ( वक्षस्थल), उदर (पेट), पीठ, दो भुजायें और दो पैर । इन अंगों के अवयवरूप जो अंगुली आदि हैं, वे उपांग कहलाते हैं और इनके प्रत्यवयवभूत जो अंगुली आदि की पर्व, रेखायें आदि, वे अंगोपांग कहलाती हैं । इस प्रकार अंग और उपांग के समुदाय को अंगोपांग कहते हैं तथा अंग, उपांग और अंगोपांग का समुदाय भी अंगोपांग कहलाता है । क्योंकि व्याकरणशास्त्र के 'स्यादावसंख्येय' (सि. ३/१ / ११९) इत्यादि सूत्र से एक शेष रहता है। इस प्रकार अंगोपांग का निमित्तभूत कर्म भी अंगोपांग कहलाता है-तन्निमितं कर्मा गोपांगं । वह तीन प्रकार का होता है -- औदारिकअंगोपांग, वैक्रिय-अंगोपांग और आहारक अंगोपांग । यदुदयवशादौदारिकशरीरत्वेन परिणतानां पुद्गलानामंगोपांगविभागपरिणातिरुपजायते तदौदारिकोपांगनाम -- जिस कर्म के उदय से औदारिक शरीर रूप से परिणत पुद्गलों की औदारिक शरीर के अंग और उपांग के विभाग रूप से परिणति होती है, वह औदारिक अंगोपांग नामकर्म है। इसी प्रकार वैक्रिय-अंगोपांग और आहारक अंगोपांग नामकर्म के भी लक्षण समझ लेना चाहिये । १. जाति नामकर्म को पृथक मानने के प्रसंग में उक्त समाधान के अतिरिक्त यह एक और दृष्टिकोण है-जाति नामकर्म जिस अव्यभिचारी सादृश्य से नारक आदि संसारी जीवों में एकपने का जैसा बोध कराता है, वैसा गति नामकर्म से नहीं होता है । जाति नामकर्म एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि भाव का नियामक कर्म है अतः यदि जाति नामकर्म पृथक् न माना जाये तो हाथी, घोड़ा, बैल, मनुष्य आदि पंचेन्द्रिय जीव भी भ्रमर, मच्छर, इन्द्रगोप, वृक्ष आदि के आकार वाले और ये हाथी आदि के आकार के हो जायेंगे। इस प्रकार प्रतिनियत सादृश्य और प्रतिनियत इन्द्रियों की व्यवस्था को बतलाने वाला जातिनामकर्म पृथक् सिद्ध होता है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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