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________________ बंधनकरण पट्ट को ऋषभ कहते हैं और दोनों ओर से होने वाले मर्कटवन्ध को नारा कहते हैं । इसलिये दोनों ओर से मर्कटबंध के द्वारा बंधी हुई दो हड्डियां तीसरी 'पट्टाकृति' वाली हड्डी के द्वारा परिवेष्टित और उन तीनों हड्डियों को भेदन करने वाली वज्र संज्ञावाली कीलिका नाम की हड्डी जहाँ होती है, उसे वज्रऋषभनाराचसंहनन कहते हैं । १७ २. यत्पुनः कीलिकारहितं तदृषभनाराचं द्वितीयं -- जो संहनन उपर्युक्त प्रकार वाले संहनन में से कीलिका रहित होता है, वह ऋषभनाराचसंहनन नामक दूसरा संहनन है । ३. यत्रास्थ्नोर्मर्कटबन्ध एव केवलस्तन्नाराचसंज्ञं तृतीयं -- जहाँ दो हड्डियों में केवल मर्कटबंध ही होता है, वह नाराच नामक तीसरा संहनन है । ४. यत्र पुनरेकपार्श्वे मर्कटबन्धो द्वितीयपार्श्वे च कीलिका बन्धस्तदर्द्धनाराचं चतुर्थ -- जिसके एक पार्श्व (बाजू) में मर्कटवन्ध हो और दूसरे पार्श्व में कीलिका बंध हो, वह अर्धनाराच नामक चौथा संहनन है। ५. यत्रास्थीनि कोलिकामात्रबद्धान्येव भवन्ति तत्कोलिकाख्यं पंचमं -- जिसमें हड्डियां केवल कीलों से ही बंधी होती हैं, वह कीलिका नामक पांचवां संहनन है । ६. यत्र पुनः परस्परं पर्यन्तस्पर्शमात्रलक्षणां सेवामागतान्यस्थीनि भवन्ति नित्यमेव स्नेहाभ्यंगादिरूपां सेवां प्रतीच्छन्ति वा तत्सेवार्त्ताख्यं षष्ठं-- जिसमें हड्डियां परस्पर पर्यन्तभाग में स्पर्श करने मात्र लक्षण वाली सेवा (संबन्ध ) को प्राप्त होती हैं, अथवा जो संहनन नित्य ही तेलमर्दन आदि रूप सेवा की इच्छा करता है, वह सेवार्त नामक छठा संहनन है । उक्त छहों संहननों का कारणभूत संहनन नामकर्म भी छह प्रकार का है । ८. संस्थान -- संस्थानमाकारविशेषः, संगृहीत संघातितबद्धेष्वौदारिकाविपुद् गलेषु यदुदयाद्भवति तत्संस्थाननाम -- आकारविशेष को संस्थान नाम कहते हैं, अतः संग्रह किये गये, संघात रूप से बंधे हुए औदारिक आदि पुद्गलों में जिसके उदय से आकारविशेष होता है, वह संस्थान' नामकर्म है । वह समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, सादि, कुब्ज, वामन और हुंड के भेद से छह प्रकार का है। १. यदुदयात्समचतुरस्रं संस्थानं स्यात्तत्समचतुरस्त्र संस्थाननाम --जिसके उदय से समान चतुष्कोण युक्त संस्थान (आकार) होता है, वह समचतुरस्रसंस्थान नामकर्म है । इसी प्रकार अन्य संस्थान नामकर्म के लक्षणों के लिये भी जानना चाहिये। जिस शरीर में 'सम' अर्थात् सामुद्रिक शास्त्रोक्त प्रमाणरूप लक्षण अविसंवादी चारों अस्त्र (कोण) होते हैं, अर्थात् जिस शरीर के अवयव समानरूप से चारों दिग्भाग से संयुक्त होते हैं, ऐसे आकार को समचतुरस्रसंस्थान कहते हैं । २. नाभेरुपरि संपूर्ण प्रमाणत्वादधस्त्वतथात्वादुपरिसंपूर्णप्रमाणाधोहोनन्यग्रोधवत्परिमंडलत्वं यस्य तन्न्यग्रोधपरिमंडलं- नाभि से ऊपर संपूर्ण प्रमाण वाले और नाभि से नीचे उससे विपरीत प्रमाण वाले आकार को न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान कहते हैं । न्यग्रोध वटवक्ष का नाम है । जैसे वह १. संहनन एवं संस्थान की आकृतियों को परिशिष्ट में देखिये ।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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