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________________ कर्मप्रकृति १० वेदनीय कर्म की उत्तरप्रकृतियां वेदनीय कर्म की दो उत्तर प्रकृति है-सात और असात । यदयादारोग्यविषयोपभोगादिजनितमाह्लादलक्षणं सातं वेद्यते तत्सातवेदनीयं, तद्विपरीतमसातवेदनीयं-जिसके उदय से आरोग्य, विषयोपभोग आदि से उत्पन्न आह लादादि रूप साता का वेदन हो. वह सातवेदनीय है और इसके विपरीत असातवेदनीय कहलाता है । मोहनीय कर्म की उत्तरप्रकृतियां __ मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सोलह कषाय, नव नोकषाय, ये अट्ठाईस मोहनीय कर्म की प्रकृतियां हैं।' मिथ्यात्व-यदुदयाज्जिनप्रणीततत्त्वाश्रद्धानं तन्मिथ्यात्वं--जिसक उदय से जिनप्रणीत तत्त्वों पर श्रद्धान नहीं होता है, वह मिथ्यात्व है । सम्यगमिथ्यात्व--यदुदयाज्जिनप्रणीततत्त्वं न सम्यक् श्रद्धत्ते नापि निन्दति तत्सम्यग्मिथ्यात्वं-- जिसके उदय से जीव जिनप्रणीत तत्त्वों का सम्यक् प्रकार श्रद्धान नहीं करता है और न ही निन्दा करता है, वैसे ही अन्य मतों को समझता है, अर्थात् वीतरागी और सरागी एवं उनके कथन को समान रूप से ग्राह्य मानता है, वह सम्यमिथ्यात्व कर्म है। सम्यक्त्व--यदुदयवशाज्जिनप्रणीततत्त्वं सम्यक् श्रद्धत्ते तत्सम्यक्त्वं--जिसके उदय से जिनप्रणीत तत्त्व का जीव सम्यक् प्रकार श्रद्धान करता है, वह सम्यक्त्वमोहनीय कर्म है। . इन तीनों प्रकृतियों को दर्शनमोहनीय कहते हैं । कषाय--कषस्य संसारस्यायो लाभो येभ्यस्ते कषायाः--कष् अर्थात् ससार की आय यानी लाभ जिनसे हो, वे कषाय कहलाती हैं।' ___ कषाय चार प्रकार की हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । ये प्रत्येक कषाय अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से चार-चार प्रकार की है । इस प्रकार १. पंचसंग्रह १२३ कर्मविचारणा के प्रसंग में मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियां मानने का विधान उदय और सत्ता की अपेक्षा समझना चाहिये, किन्तु बंधापेक्षा छब्बीस भेद होते हैं। क्योंकि दर्शनमोहनीय कर्मबंध की अपेक्षा मिथ्यात्व रूप ही है, किन्तु उदय और सत्ता की अपेक्षा से आत्मपरिणामों के द्वारा उसके शुद्ध और अर्धशुद्ध और अशुद्ध, यह तीन रूप हो जाते हैं। जो क्रमश: सम्यक्त्व मोहनीय, सम्यगमिथ्यात्व मोहनीय और मिथ्यात्व मोहनीय कहलाते हैं और इन्हीं रूपों में अपना फल वेदन कराते हैं। २. यद्यपि यह कर्म शुद्ध होने के कारण तत्त्वरुचि रूप सम्यक्त्व में तो बाधा नहीं पहुंचाता है, परन्तु इसके उदय रहने पर औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व नहीं हो पाता है । ३. शास्त्रों में कषाय शब्द की अनेक प्रकार से व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या की है, जैसे कम्म कसं भवो वा कसमाओ सि जओ कसाया ते। कसमाययंति व जओ गमयंति कसं कसायत्ति ॥ कष् अर्थात् कर्म अथवा भव, उनकी आय यानी लाभ जिससे हो, उसे कषाय कहते हैं । अथवा कर्म या संसार जिससे आये, वह कषाय अथवा जिसके होने पर जीव कर्म अथवा संसार प्राप्त करे, उसे कषाय कहते हैं। -विशेषा. भा., गा.१२२७
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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