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________________ बंधनकरण कषायों के सोलह भेद होते हैं । इनमें अनन्तं संसारमनुबध्नन्तीत्येवंशीला अनन्तानुबंधिनः--जो कषाय अनन्त संसार को बांधने के स्वभाव वाली हैं, उन्हें अनन्तानुबंधी कहते हैं। इनका संयोजना' यह दूसरा भी नाम है । जिनके द्वारा जीव अनन्त भवों के साथ संयुक्त अर्थात् संबद्ध किये जाते हैं, उन्हें संयोजना कहते हैं । यह संयोजना शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है--संयोज्यन्ते संबध्यन्तेऽनन्तर्भवर्जन्तवो यैस्ते संयोजना इति व्युत्पत्तेः । जिनके उदय से स्वल्प भी प्रत्याख्यान न हो सके, वे अप्रत्याख्यानावरण कषाय कहलाती हैं । न विद्यते स्वल्पमपि प्रत्याख्यानं येषामुदयात्तेऽप्रत्याख्यानाः। सर्वविरतिरूप प्रत्याख्यान (त्याग, संयम) जिनके द्वारा आवृत्त किया जाये, वे प्रत्याख्यानावरण कषाय हैं--प्रत्याख्यानं सर्वविरतिरूपमावियते यैस्ते प्रत्याख्यानावरणाः । परीषहों और उपसर्गों के आने पर जो चारित्रधारक साधु को भी 'सं' अर्थात् कुछ जलाती रहती हैं (वीतरागदशा में बाधा डालती हैं), वे संज्वलन कषाय कहलाती हैं--परीषहोपसर्गनिपाते सति चारित्रिणमपि सं ईषज्ज्वलयन्तीति संज्वलनाः।' नोकषाय-इस पद में 'नो' शब्द साहचर्य के अर्थ में है । इसलिये इस पद का यह अर्थ होता है कि जो कषायों के साथ सहचारी रूप से, सहवर्ती रूप से रहें, वे नोकषाय कहलाती हैं--नोकषाया इत्यत्र मोशन्दः साहचर्ये, ततः कर्षीयैः सहचारिणः सहवतिनो ये ते नोकषायाः। प्रश्न--नोकषायें किन कषायों के साथ सहचारी रूप से रहती हैं ? उत्तर--आदि की वारह कषायों (अनन्तानबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्कों) के साथ सहचारी रूप से रहती हैं । क्योंकि आदि की वारह कषायों के क्षय हो जाने पर फिर नोकषायें नहीं रहती हैं । क्षयकश्रेणी पर आरोहण करने वाले क्षपक जीव की उन वारह कषायों के क्षय होने के अनन्तर ही इन हास्यादि नोकषायों का क्षपण करने के लिये प्रवृत्ति होती है । अथवा सम्यक् प्रकार अर्थात् प्रवल रूप से उदय को प्राप्त ये नोकषायें अवश्य ही अनन्तानुबंधी क्रोधादि बारह कषायों को प्रदीप्त करती हैं । इसलिये ये कषायसहचारी कहलाती हैं । कहा भी है-- कषायसहवर्तित्वात्कषायप्रेरणादपि । हास्यादिनवकस्योक्ता नोकषायकषायता ॥ १. मूल रूप में क्रोध, मान, माया और लोभ, ये कषाय के चार भेद हैं। स्वभाव को भूलकर आक्रोश से भर जाना, दूसरे पर रोष करना क्रोध है। गर्व, अभिमान, सुठे आत्मप्रदर्शन को मान कहते हैं। कपट भाव अर्थात विचार और प्रवृत्ति में एकरूपता का अभाव माया और ममता परिणामों को लोभ कहते हैं। इन कषायों के तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र और मंद स्थिति के कारण चार-चार प्रकार हो जाते हैं जो क्रमश: अनन्तानबंधी (तीव्रतम स्थिति), अप्रत्याख्यानावरण (तीव्रतर स्थिति), प्रत्याख्यानावरण (तीव्र स्थिति) और संज्वलन (मंद स्थिति) कहलाते हैं। अनन्तानुबंधी कषायें सम्यग्दर्शन का उपघात करती हैं। इनके उदय में सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं होता है और पूर्वोत्पन्न भी नष्ट हो जाता है। अप्रत्याख्यानावरण कषायों के उदय से आंशिक त्यागरूप परिणाम ही नहीं होते हैं। प्रत्याख्यानावरण कषायों के उदय रहने पर एकदेश त्यागरूप श्रावकाचार के पालन करने में बाधा नहीं आती है, किन्तु सर्वत्याग रूप श्रमणधर्म का पालन नहीं हो पाता है। संज्वलन कषाय के उदय से यथाख्यातचारित्र की प्राप्ति नहीं होती है। अर्थात् यथातथ्यरूप से सर्वविरति चारित्र पालन करने में रुकावट आती रहती है। २. इसका विशेष स्पष्टीकरण परिशिष्ट में देखिये। । है। अर्थात् यथातथ्य पालन नहीं हो पाता है। श्रावकाचार के पालन
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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