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________________ ३. अवधिरेव दर्शनमवधिदर्शनं, तदावरणमवधिदर्शनावरणं--अवधिज्ञान के पूर्व होने वाला दर्शन अवधिदर्शन कहलाता है और उसका आवरण करने वाला कर्म अवधिदर्शनावरण है। ४. केवलमेव दर्शनं केवलदर्शनं, तदावरणं केवलदर्शनावरणं--केवलज्ञान के साथ होने वाले दर्शन (सामान्यबोध) को केवलदर्शन कहते हैं और उसका आवरण करने वाला कर्म केवलदर्शनावरण कहलाता है । ५. नियतं द्राति अविस्पष्टतया गच्छति चैतन्यं यस्यां स्वापावस्थायां सा निद्रा--शयन की जिस अवस्था में चैतन्य अविस्पष्ट रूप को प्राप्त हो, उसे निद्रा कहते हैं। इस निद्रा वाले जीवों को चुटकी बजाने मात्र से जगाया जा सकता है। ६. निद्रातोऽतिशायिनी निद्रा निद्रानिद्रा--निद्रा से भी अतिशायिनी (अधिक गहरी नींद सुलाने वाली) निद्रा को निद्रा-निद्रा कहते हैं । यहाँ मध्यमपदलोपी समास है।' इस निद्रा में चैतन्य अत्यन्त अस्फुटीभूत हो जाता है । इस निद्रा वाला जीव वहुत प्रयत्नों के बाद प्रबोध को प्राप्त होता है । ७. उपविष्ट ऊर्ध्वस्थितो वा प्रचलति घूर्णते यस्यां स्वापावस्थायां सा प्रचला--जिस निद्रादशा में बैठा या खड़ा हुआ जीव झूमने लगता है, उसे प्रचला कहते हैं । ८. प्रचलातोऽतिशायिनी (प्रचला) प्रचलाप्रचला--प्रचला से भी अतिशायिनी प्रचला को प्रचला-प्रचला कहते हैं। यह निद्रा गमन आदि करते हुए भी जीव के उदय में आ जाती है, इसीलिए इसे प्रचला से भी अधिक अतिशायिनी वाला कहा है। ९. स्त्याना पिण्डीभूता ऋद्धिरात्मशक्तिरूपा यस्यां स्वापावस्थायां सा स्त्यानद्धि:--जिस शयनावस्था में आत्मा की शक्ति रूप ऋद्धि स्त्यान अर्थात् पिंडीभूत ( एकत्रित) हो जाये, उसे स्त्यानद्धि कहते हैं । यदि प्रथम संहनन (वज्रऋषभनाराच संहनन) वाले को इसका उदय हो तो अर्धचक्री (वासुदेव) के वल से आधे वल के वरावर शक्ति उत्पन्न हो जाती है । दर्शनावरण कर्म की ये नौ ही प्रकृतियां प्राप्त हुई दर्शनलब्धि की नाशक होने से और अप्राप्त दर्शनलब्धि की प्रतिबंधक होने से दर्शनावरण कही जाती हैं । १. निद्रा-निद्रा में 'अतिशायिनी' इस मध्यम पद का लोप होने से यह मध्यम पदलोपी समासपद है। इसी प्रकार प्रचला-प्रचला में भी 'अतिशायिनी' इस मध्यम पद का लोप समझना चाहिये। २. स्त्यानद्धि का दूसरा नाम स्त्यानगृद्धि भी है। जिसका निरुक्त्यर्थ इस प्रकार हैजिस निद्रा के उदय से निद्रित अवस्था में विशेष बल प्रगट हो जाये । (स्त्याने स्वप्ने यया वीर्यविशेषप्रादुर्भाव: सा स्त्यानगद्धिः) अथवा जिस निद्रा में दिन में चिन्तित अर्थ और साधन विषयक आकांक्षा का एकत्रीकरण हो जाये, उसे स्त्यानगद्धि निद्रा (स्त्याना संघातीभूतागृद्धिदिनचिन्तितार्थसाधनविषयाऽभिकांक्षा यस्यां सा स्त्यानगद्धिः) कहते हैं। अपवा जिसके उदय से आत्मा स्वप्न (शय नावस्था) में रौद्र बहु कर्म करती है, उसे स्त्यानगद्धि कहते हैं। स्त्यायति धातु के अनेक अर्थ हैं, उनमें से यहां स्त्यान का अर्थ स्वप्न और गद्धि का दीप्ति अर्थ लिया है (स्त्याने स्वप्ने गद्धयति दीप्यते यदुदयादात्मा रौद्रं बहुकर्म करोति सा स्त्यानगद्धिः)।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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