SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० छोड़ कर शेष सभी स्थान होते हैं और अन्य भी होते हैं। उससे भी अधस्तनतर स्थितिबंध में प्राक्तन अनन्तर स्थितिस्थान सम्बन्धी अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों का असंख्यातवां भाग छोड़ कर शेष सभी स्थान होते हैं, अन्य भी होते हैं। इसे तब तक कहना चाहिये, जब तक पोषम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियां व्यतीत होती हैं । यहां पर जघन्य अनुभागबंधविषयक स्थावरनामकर्म सम्बन्धी स्थिति के प्रमाणरूप ..... स्थित स्थितियों की प्रथम स्थिति के जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान हैं, उनकी अनुकृष्टि समाप्त हो जाती है। उससे अधोवर्ती स्थितिस्थान में द्वितीय स्थितिस्थान सम्बन्धी अनुभागधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि समाप्त हो जाती है। इस प्रकार इसी क्रम से जघन्य स्थिति • प्राप्त होने तक कहना चाहिये । इसी प्रकार बावर, पर्याप्त और प्रत्येक नामकर्मों की अनुकृष्टि की विवेचना करना चाहिये । अब तीर्थकर नामकर्म की अनुकृष्टि एवं अनुभागबंध सम्बन्धी तीव्रमंदता बतलाते हैं। अनुभागबंध सम्बन्धी तीव्रमंदता तणुतुल्ला तित्थयरे, अणुकड्ढी तिव्वमंदया एत्तो । सव्वगईण नेया, जहन्नयाई अनंतगुणा ॥६५॥ शब्दार्थ -- तणुतुल्ला - शरीर नामकर्म के समान, तित्थयरे - तीर्थंकर नामकर्म में, अणुकढीअनुकृष्टि, तिमंदया- तीव्रमंदता, एतो-अव सव्व गईण- सर्व प्रकृतियों की, नेया- जानना चाहिये, जहन्नयाई - जघन्यादि स्थितियों में, अनंतगुणा - अनन्तंगुण । गाथार्थ -- तीर्थंकर नामकर्म के अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों में शरीरनामकर्म के समान -अनुकुष्टि जानना चाहिये । अब सर्व प्रकृतियों के अनुभाग की तीव्रता - मंदता कहते हैं। जो जघन्य से लेकर उत्तरोत्तर स्थितियों में अनन्तगुण होता है । • विशेषार्थ -- पूर्व में जैसे शरीर नामकर्म में अनुकृष्टि कही है, उसी प्रकार तीर्थंकर नामकर्म में अनुकृष्टि जानना चाहिये ।' अब अनुभाग की तीव्रमंदता का कथन करते हैं कि- सभी प्रकृतियों की अपने-अपने जघन्य अनुभागबंध से आरम्भ करके उत्कृष्ट अनुभागबंध तक प्रत्येक स्थितिबंध में अनन्तगुणी तीव्रता-मंदता कहनी चाहिये। जिसका स्पष्टीकरण यह हैउत्तरोत्तर स्थितिबंध में अनुभाग अनन्त गुणा होता है। इसमें अशुभ प्रकृतियों का अनुभाग जघन्य स्थिति से आरम्भ करके ऊर्ध्वमुखी क्रम से अनन्तगुणा कहना चाहिये तथा शुभ प्रकृतियों का अनुभाग उत्कृष्ट स्थिति से आरम्भ करके अवोमुख रूप से जघन्य स्थिति प्राप्त होने तक अनन्तगुणा १. सुगमता से समझने के लिये अनुकृष्टिप्ररूपणा का स्पष्टीकरण परिशिष्ट में देखिये । -
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy