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________________ बनकरण तसबायरपज्जत्तगपत्तयगाण परचायतुल्लाउ । जाव हारसकोडाकोडी हेट्ठा य साएणं ॥६४॥ शब्दार्थ-तसबायरपज्जत्तगपत्तयगाण-त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक की, परघायतुल्लाउपराघात के तुल्य, जाव-तक, द्वारसकोडाकोडी-अठारह कोडाकोडी, हेढा-नीचे की, य-और, साएणंसातावेदनीय के तुल्य। गाथार्थ-वस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक नामकर्म की उत्कृष्ट से अठारह कोडाकोडी सागरोपम तक पराघात नामकर्म के तुल्य और उससे नीचे की स्थितियों की अनुकृष्टि सातावेदनीय की अनुकृष्टि के समान कहना चाहिए। विशेषार्थ-वस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक नामकर्म की अनुकृष्टि पराघात नामकर्म के समान जानना चाहिये । वह अनुकृष्टि उपरितन स्थितिस्थान से आरम्भ करके नीच-नीचे उतरते हुए अठारह कोडाकोडी सागरोपम स्थिति प्राप्त होने तक जानना और उसके नीचे सातावेदनीय के समान अनुकृष्टि कहना चाहिये । इस प्रकार सामान्य से कथन करने के पश्चात् वसनामकर्म की अनुकृष्टि का. विचार करते हैं वसनामकर्म के उत्कृष्ट स्थितिबंध के आरम्भ में जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, उनका असंख्यातवां भाग छोड़ कर शेष सभी स्थान एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिबंध के आरम्भ में पाये जाते हैं तथा अन्य भी होते हैं। एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिबंध के आरम्भ में भी जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, उनका असंख्यातवां भाग छोड़ कर शेष सभी स्थान दो समय कम उत्कृष्ट स्थितिबंध के आरम्भ में भी पाये जाते हैं तथा अन्य भी होते हैं। इस प्रकार इसी क्रम से पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियां व्यतीत होने तक कहना चाहिये। यहां पर उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी - अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि समाप्त हो जाती है। उससे भी अघोवर्ती स्थितिस्थान में एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि समाप्त हो जाती है। उससे भी अघोवर्ती स्थितिस्थान में दो समय कम उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि समाप्त हो जाती है। इस प्रकार नीचे-नीचे उतरते हुए तब तक कहना चाहिये, जब तक कि नीचे अठारह कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति रहती है।' उससे आगे अठारह कोडाकोडी सागरोपम की चरम स्थिति में जो, अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, वे सब उससे अधोवर्ती स्थितिबंध के आरम्भ में होते हैं और अन्य भी होते हैं और जो अघोवर्ती स्थितिबंध के आरम्भ में अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, वे सभी उससे भी अधोवर्ती स्थितिबंध के आरम्भ में होते हैं एवं अन्य भी होते हैं। इस प्रकार इसी क्रम से तब तक कहना चाहिये, जब तक अभव्यप्रायोग्य जंघन्य अनुभागबंध विषयक स्थावर नामकर्म सम्बन्धी स्थिति के प्रमाण स्थितियां व्यतीत होती हैं। इसके अनन्तर अधस्तन स्थितिस्थान में प्राक्तन अनन्तर स्थितिस्थानसम्बन्धी अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों का असंख्यातवां भाग १. अर्थात् १८ सागरोपम तक सातावेदनीयवत् अनुकृष्टि कहना चाहिये। .:
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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