SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ कर्मप्रकृति द्वितीय स्थिति को बांधते हुए जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर अन्य सभी स्थान तृतीय स्थितिबंध के आरम्भ में होते हैं और अन्य भी होते हैं। इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियां व्यतीत होती हैं । यहाँ पर जघन्य स्थिति संबंधी अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि समाप्त हो जातो है । इससे उपरितन स्थितिबंध के आरम्भ में द्वितीय स्थितिस्थान सम्बन्धी अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि समाप्त हो जाती है, इससे भी उपरितन स्थितिबंध के आरम्भ में तृतीय स्थिति सम्बन्धी अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि समाप्त हो जाती है । इस प्रकार इसी क्रम से अभव्य जीवों के योग्य जघन्य स्थितिबंध प्राप्त होने तक कहना चाहिये । तदनन्तर 'उप्पिमसायसमया उ आ जेट्टा' अर्थात् इससे ऊपर अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध से आरम्भ करके उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होने तक असातावेदनीय के समान अनुकृष्टि जानना चाहिये । इसका अभिप्राय यह हुआ कि अभव्य जीवों के योग्य जघन्य स्थितिबंध में जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, वे सब और दूसरे भी उससे उपरितन स्थिति में होते हैं। इस ऊपर की स्थिति में जो अनुभागाध्यवसायस्थान है वे सब और अन्य भी अनुभागाध्यवसायस्थान उससे ऊपर की स्थिति में होते हैं । इस प्रकार इसी क्रम से सागरोपम शतपृथक्त्व तक कहना चाहिये । ये प्रायः अभव्यप्रायोग्य जघन्य अनुभागबंध विषयक स्थितियां हैं। ये स्थितियां मनुष्यगति रूप प्रतिपक्षी प्रकृति के साथ परावर्तित, परावर्तित होकर बंधती हैं, परावर्तित होकर बंधते समय प्राय: परिणाम मंद होते हैं । इसलिये ये स्थितियां जघन्य अनुभागबंध विषयक हैं । ..... ___इन स्थितियों की चरम स्थिति में जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सभी अनुभागबंधाध्यवसायस्थान उससे उपरितन स्थितिबंध के प्रारम्भ में होते हैं तथा अन्य भी होते हैं। वहां पर भी जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, उनका, असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सभी स्थान उससे उपरितन स्थितिबंध के आरम्भ में पाये जाते हैं और अन्य भी पाये जाते हैं । इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियां व्यतीत होती हैं । यहाँ पर जघन्य अनुभागबंध विषयक चरम स्थिति सम्बन्धी अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि समाप्त हो जाती है । इससे. उपरितन स्थितिबंध में जघन्य अनुभागबंध विषयक चरम स्थिति के अनन्तर की स्थिति वाले अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि समाप्त हो जाती है । इस प्रकार इसी क्रम से उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होने तक कहना चाहिये । । ..'एसा तिरिय . . . . 'इति' अर्थात् यह कही गई अनुकृष्टि तियंचगति, तियंचानुपूर्वी रूप तिर्यग्गतिद्विक और नीचगोत्र में जानना चाहिये । यानी जैसे तियंचगति में अनुकृष्टि का विचार किया, उसी प्रकार तिर्यंचानुपूर्वी और नीचगोत्र में स्वयमेव समझ लेना चाहिये । अब वसादिचतुष्क की अनुकृष्टि का कथन करते हैं
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy