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________________ बंधनकरण . अब शेष परावर्तमान अशभ प्रकृतियों की अनुकृष्टि के बारे में संकेत करते हैं ‘एवं परित्तमाणोणमसुभाणं' अर्थात् जिस प्रकार असातावेदनीय के अनुभागाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि कही, उसी प्रकार शेष नरकद्विक, पंचेन्द्रियजाति को छोड़कर शेष एकेन्द्रिय आदि चार जाति, प्रथम संस्थान को छोड़कर शेष पांच संस्थान, प्रथम संहनन को छोड़कर शेष पांच संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, अस्थिर, अशभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशःकीर्ति-इन सत्ताईस (२७) परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों की एक-एक का नामोच्चारण करके अनुकृष्टि कहना चाहिये। अव तिर्यचद्विक और नीचगोत्र की अनुकृष्टि का कथन करते हैं सेकाले सम्मत्तं, पडिवज्जंतस्स सत्तमखिईए । जो ठिइबंधो हस्सो, इत्तो आवरणतुल्लो य ॥६२॥ जा अभवियपाउग्गा, उप्पिमसायसमया उ आजेट्ठा। एसा तिरियगतिद्गे, नीयागोए य अनुकड्ढी ॥६३॥ - शब्दार्थ--सेकाले-उस अनन्तर समय में, सम्मत्तं-सम्यक्त्व, पडिवज्जतस्स-प्राप्त करनेवाल, सत्तमखिईए-सप्तम पृथ्वी के नारक का, जो ठिइबंधो-जो स्थितिबंध, हस्सो-लस्व, जघन्य, इसो-उससे, आवरणतुल्लो-ज्ञानावरण के समान, य-और। .. . जा-तक, अभवियपाउग्गा-अभव्यप्रायोग्य, उप्पि-ऊपर, असायसमया-असातावेदनीय के समान, उ-और, आ जेट्ठा-उत्कृष्ट पर्यन्त, एसा-यह, तिरियगतिदुर्ग-तियंचगतिद्विक, नीयागोए-नीचगोत्र की, य-और, अनुकड्ढो-अनुकृष्टि । . - गाथार्थ--अनन्तर समय में सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले सप्तम नरक पृथ्वी के जीव के जो जघन्य स्थितिबंध होता है, उस स्थितिबंध से प्रारम्भ करके अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध तक तो तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र की अनुकृष्टि ज्ञानावरणादिवत् और उससे ऊपर उत्कृष्ट स्थितिबंध तक की अनुकृष्टि असातावेदनीयवत् कहना चाहिये। . विशेषार्थ--सप्तम पृथ्वी में वर्तमान नारक जीव जो अनन्तर समय में सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला है, उसके जो जघन्य स्थितिबंध होता है, उससे ऊपर का स्थितिबंध अनुकृष्टि की अपेक्षा आवरण अर्थात् ज्ञानावरण के समान जानना चाहिये और वह तब तक, जब तक कि अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध हो। इनमें पहले तिर्यंचगति की अनुकृष्टि का विचार करते है-- सप्तम पृथ्वी में वर्तमान और सम्यक्त्व प्राप्त करने के अभिमुख नारकी के तियंचगति की जघन्य स्थिति को बांधते हुए जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर अन्य सभी स्थान द्वितीय स्थितिबंध के आरम्भ में होते हैं तथा अन्य भी होते हैं। १. अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध तक के सब स्थितिबंध अनुकृष्टि की अपेक्षा आवरणतुल्य हैं, अर्थात् उतने स्थितिस्थानों की अनुकृष्टि आवरणवत् समझना चाहिये। .. .....
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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