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________________ प्रकृतियों की अनुकृष्टि सातावेदनीय के अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि के समान जानना चाहिये। . ..' विशेषार्थ-पराघात, उद्योत, उच्छ्वास, आतप, शुभवर्णादि एकादश (११) एवं अगुरुलघु, निर्माण आदि रूप नामकर्म की ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां और 'तण उवंगाणं' इस पद में आये हुए तनु (शरीर) पद से शरीर, संघातन और बंधन भी ग्रहण किये गये हैं, इसलिये पांच शरीर, पांच संघातन और पन्द्रह बन्धन, इन पच्चीस और अंगोपांगत्रिक कुल मिलाकर इन पैंतालीस प्रकृतियों की अनुकृष्टि प्रतिलोमक्रम से कहना चाहिये ।' जिसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है__उपर्युक्त पैतालीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंधस्थान के प्रारम्भ में जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, उनके असंख्यातवें भाग को छोड़कर शेष सभी स्थान एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिबंध के प्रारम्भ में पाये जाते हैं तथा और भी अन्य स्थान प्राप्त होते हैं । एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिबंध के प्रारम्भ में जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, उनका असंख्यातवा भाग छोड़कर शेष सभी स्थान दो समय कम उत्कृष्ट स्थितिबंध के आरम्भ में पाये जाते हैं एवं अन्य भी स्थान होते हैं । इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियां अधो-अधो भाग में अतिक्रान्त होती हैं । यहाँ पर उत्कृष्ट स्थितिबंध के आरंभ में होने वाले अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की प्रत्येक स्थितिस्थान पर असंख्यातवांअसंख्यातवां भाग छोड़ने से अनुकृष्टि समाप्त हो जाती है। इसके अनन्तर अधोवर्ती स्थितिस्थान में एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिबंध के आरम्भ में होने वाले अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि समाप्त हो जाती है। उससे भी अधोवर्ती स्थितिस्थान में दो समय कम उत्कृष्ट स्थितिबंध के आरम्भ में होने वाले अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि समाप्त हो जाती है । इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक पूर्वोक्त सभी (४५) प्रकृतियों की अपनी-अपनी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। _ 'सायस्स उ उक्कोसे' इत्यादि अर्थात् सातावेदनीय को उत्कृष्ट स्थिति को बांधने वाले जीव के जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, वे एक समयः कम. उत्कृष्ट स्थितिबंध के प्रारम्भ में भी होते हैं और अन्य भी होते हैं। जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिबंध के आरम्भ में होते हैं, वे दो समय कम उत्कृष्ट स्थितिबंध के प्रारम्भ में भी होते हैं तथा अन्य भी होते हैं । इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक असातावेदनीय का जघन्य स्थितिबध प्राप्त होता है । इसका अभिप्राय यह है कि जितने प्रमाण वाली १. अपरावर्तमान' शुभ प्रकृतियों की अनकृष्टि उत्कृष्ट स्थितिस्थान से प्रारम्भ कर नीचे जघन्य स्थितिस्थानों में समाप्त होती है, यह प्रतिलोम का आशय है। २. अर्थात् पल्यापम के असंख्यातवें भागप्रमाण की स्थितियों में से अन्तिम स्थितिबंध में। .... ३. असातावेदनीय के अभव्य सम्बन्धी जघन्य अनुभागबंधप्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिबंध से सातावेदनीय की अनुकृष्टि का प्रारम्भ करके असाता के जघन्य अनुभागबंधप्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध तक कहकर अनुकृष्टि का अनुक्रम बदलना चाहिये।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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