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________________ १४५ स्थितियां अखालावेदनीय के जघन्य अनुभागबंध के योग्य हैं। और सातावेदनीय के साथ परिवर्तित परिवर्तित होकर बंधती हैं, उतने प्रमाण वाली सातावेदनीय की स्थितियों में 'वे और अन्य भी अनुभागबंधाध्यवसायस्थान' होते हैं, इस क्रम का अनुसरण करना चाहिये तथा 'हेछज्जोयसमं'. अर्थात् इसके नीचे उद्योतनामकर्म के समान कहना चाहिये । इसका आशय यह हुआ कि जैसा पहले उद्योत के अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों का कथन किया है, उसी प्रकार यहाँ पर भी कहना चाहिये और वह इस प्रकार---असातावेदनीय के जघन्य स्थितिबंध से अधोवर्ती स्थितिस्थान में जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, वे कुछ तो उपरितन स्थितिस्थान सम्बन्धी ही होते हैं और कुछ अन्य होते हैं । उससे भी अधोवर्ती स्थितिस्थान में जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, वे कुछ तो पूर्ववर्ती स्थितिस्थान सम्बन्धी होते हैं और कुछ अन्य होते हैं । इस क्रम से नीचे-नीचे अधोमुख रूप से तव तक कहना चाहिये, जब तक पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियां व्यतीत होती हैं । वहां पर असातावेदनीय के जघन्य स्थितिबंध के तुल्य स्थितिस्थानों सम्बन्धी अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि समाप्त होती है। ... . इस समग्र कथन का सारांश यह है कि असातावेदनीय के जघन्य स्थितिबंध के समान स्थितिस्थान वाले. अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों के अधो-अधोवती एक-एक स्थितिस्थान. में असंख्यातवां भाग विच्छिन्न करने पर पल्योपम. के असंख्यातवें भाग प्रमाण. स्थितियों के व्यतीत होने पर पूर्ण रूप से अनुकृष्टि समाप्त हो जाती है । तदनन्तर असातावेदनीय के जघन्य बंध के तुल्य स्थितिस्थान से अघोवर्ती स्थितिस्थान सम्बन्धी अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि पल्योपमें के असंख्यातवें भाग मात्र स्थान से अधोवर्तो स्थितिस्थान पर समाप्त हो जाती है । इस प्रकार तव तक कहना चाहिये, जब तक सातावेदनीय की जघन्यस्थिति प्राप्त होती है तथा एवं परित्तमाणीण उ सुभाण' अर्थात् जैसे सातावेदनीय की अनुकृष्टि का कथन किया है, उसी प्रकार मनुष्यद्विक, देवद्विक, पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, प्रशस्तबिहायोगति. स्थिर, शभ, सभग, सस्वर, आदेय, यश कीर्ति और उच्चगोत्र रूप इन सभी परावर्तमान पन्द्रह शभ प्रकृतियों की अनकृष्टि एक-एक प्रकृति का नामोच्चारण करके कहना चाहिये ।। अव असातावेदनीय की अनुकृष्टि का कथन करते हैं जाणि असायजहन्ने, उदहिपुहत्तं ति ताणि अण्णाणि ।. . . . . .. आवरणसमुप्पेवं,.....परित्तमाणीणमसुभाणं ॥६१॥ . शब्दार्थ-जाणि-जो, असाय-असातावेदनीय, जहन्ने-जघन्य में, उदहिपुहत्तं ति-सागरोपम पृथक्त्व स्थितिस्थान तक, ताणि-वे, अन्नाणि-अन्य, आवरणसमुप्प-ऊपर ज्ञानावरण के समान, एवं-इस प्रकार, परित्तमाणोणं-परावर्तमान असुभाणं-अशुभ प्रकृतियों की । १. शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण। २. साता और असाता वेदनीय ये दोनों प्रकृतियां परावर्तमान हैं। अत: साता का बंध करके. असाता का और असाता का बंध करके साता का, इस प्रकार इनका बंधक्रम चलता रहता है। ३. असातावेदाय के जघन्य अनुभागप्रायोग्य स्थितिबंध के पश्चात ४. अर्थात् जघन्य अनुभागप्रायोग्य जितने स्थितिस्थान हैं, उतने प्रमाण।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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