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________________ पंधकरण अनुकर्षण या अनुवर्तन को अनुकृष्टि कहते हैं। अर्थात् पूर्व स्थितिस्थान सम्बन्धी अनभागबंधाध्यवसायस्थानों का उत्तरसमयवर्ती स्थितिस्थानों में अनवर्तन, प्रापण (पाये जाने ) के सम्बन्ध में विचार करना अनुकृष्टि कहलाता है। घातिकर्म और उपघात नामकर्म प्रकृतियों में अनुकृष्टि का विचार करने के बाद अब आगे की गाथाओं में अन्य प्रकृतियों की अनुकृष्टि का क्रम बतलाते हैं परघाउज्जोउस्सासायवधुवनाम तणुउवंगाणं । पडिलोमं सायस्स उ उक्कोसे जाणि समऊणे ॥५९॥ २॥ ताणि य अन्नाणेवं ठिइबंधो जा जहन्नगमसाए । हेछज्जोयसमेवं परित्तमाणीण उ सुभाणं ॥६०॥ - - शब्दार्थ-परघाउज्जोउस्सासायव-पराघात, उद्योत, उच्छ्वास, आतप, धुवनाम-नामकर्म की ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां, तणु-पांच शरीर आदि, उवंगाणं-अंगोपांगविक, पडिलोम-प्रतिलोम (पश्चानुपूर्वी) से, सायस्स-सातावेदनीय की, उ-तथा, उक्कोसे-उत्कृष्ट स्थितिस्थान में, जाणि-जितने, समऊणे-समयोन (एक समय कम)। ताणि-वे, य-और, अन्नाणि-अन्य, एवं-इस प्रकार, ठिबंधो-स्थितिबंध, जा-तक, जहन्नगंजघन्य स्थितिस्थान, असाए-असाता वेदनीय की, हेठ्ठज्जोयसम-नीचे के स्थितिस्थानों में उद्योत के समान, एवं-इस तरह, परित्तमाणीण- परावर्तमान, उ-और, सुभाणं-शुभ प्रकृतियों को। - गाथार्थ-पराघात, उद्योत, उच्छ्वास, आतप तथा नामकर्म की ध्रुवबंधिनी नौ प्रकृतियों की और पांच शरीर आदि, तीन अंगोपांग प्रकृतियों की अनुकृष्टि प्रतिलोमक्रम (पश्चानुपूर्वीक्रम) से जानना चाहिये तथा सातावेदनीय की अनुकृष्टि उत्कृष्ट स्थिति से पाश्चात्य स्थितियों में वे ! सब और अन्य अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं। इस प्रकार कहना चाहिये। . इसी प्रकार असातावेदनीय के जघन्य स्थितिबंध तक 'वे सब और अन्य स्थान'' इस प्रकार कह कर उससे पूर्व स्थितियों में उद्योतवत् अनुकृष्टि कहना चाहिये तथा परावर्तमान सभी शुभ १. असत्कल्पना से प्रकृतियों में अनुकृष्टि की स्थापना इस प्रकार जानना चाहिये 10 " 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 इस स्थापना में १० समयात्मक स्थान अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिस्थान हैं, ११ से लेकर आगे १५ तक के अंक पल्य के असंख्यातभाग प्रमाण स्थितियों के तथा यही ११,१२,१३ आदि अंक द्वितीय, ततीय, चतुर्थ आदि स्थितिस्थान के भी दर्शक हैं और १० समयात्मक प्रथम स्थितिस्थान से उठी रेखा रूप अनुकृष्टि १५ समयात्मक स्थितिस्थान तक आकर बिन्दु रूप में समाप्त हुई। अर्थात् वहाँ दस समय से प्रारम्भ हुई अनुकृष्टि समाप्त रूप में समाप्त हुई। अतस्थान से उठी रेखा रूपाय, तृतीय, चतुर्थ आदि । इसी प्रकार सर्वत्र
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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