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________________ बंधनकरण १३९ कषायोदयस्थान पर विशेषाधिक होते हैं । इस प्रकार सर्व जघन्य कषायोदयस्थान प्राप्त होने तक कहना चाहिये । यह अनन्तरोपनिधा से अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की वृद्धिमार्गणा का कथन जानना चाहिये । अब परंपरोपनिधा से वृद्धिमार्गणा को स्पष्ट करते हैं उत्कृष्ट कषायोदयस्थान से आरंभ करके असंख्यात लोकाकाशप्रदेश राशि प्रमाण कषायोदयस्थानों का अधोभाग में अतिक्रमण करने के अनन्तर अधोभाग में जो दूसरा कषायोदयस्थान आता है, उसमें अनुभागबंधाध्यवसायस्थान उत्कृष्ट कषायोदयस्थान संबंधी अनुभागबंधाध्यवसायस्थान की अपेक्षा दुगुने हो जाते हैं । फिर उतने ही कषायोदयस्थानों का अतिक्रमण करने के अनन्तर जो दूसरा अधोवर्ती कषायोदयस्थान प्राप्त होता है, उसमें अनुभागबंधाध्यसायस्थान दुगुने होते हैं । इस प्रकार पुनः-पुनः जघन्य कषायोदयस्थान प्राप्त होने तक कहना चाहिये। जो अंतर-अंतर में नाना प्रकार के द्विगुणवृद्धि स्थान हैं वे आवलिका के असंख्येयभाग में जितने समय होते हैं, उतने प्रमाण होते हैं। ये आवलिका के असंख्यातवें भाग मात्र शुभ प्रकृतियों के और अशुभ प्रकृतियों के प्रत्येक द्विगुणवृद्धि स्थान अल्प हैं और इनसे भी एक द्विगुणवृद्धि के अपान्तराल में रहे हुए कषायोदयस्थान असंख्यात गुणित होते हैं । ___ इस प्रकार स्थितिबंध के कारणभूत अध्यवसायों में अनुभागबंध के कारणभूत अध्यवसायों का निरूपण किया गया । अब स्थितिबंधस्थानों में अनुभागबंध की प्ररूपणा करते हैं___ 'ठिइबंधे' इत्यादि अर्थात् स्थितिबंधस्थानों में भी आयुकर्म की प्रकृतियों को छोड़कर शेष सभी प्रकृतियों के कषायोदयस्थानों में अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों के समान अनुभागबंधस्थान जानना चाहिये । इसका स्पष्टीकरण यह है कि-- आयुवर्जित (नरकायु को छोड़कर) पूर्वोक्त छियासी (८६) अशुभ प्रकृतियों की जघन्य स्थिति में अनुभागबंधस्थान असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमाण होते हैं । वे वक्ष्यमाण स्थानों की अपेक्षा सबसे कम हैं । उससे द्वितीय स्थिति में अनुभागबंधस्थान विशेषाधिक हैं । उससे भी तृतीय स्थिति में अनुभागबंधस्थान विशेषाधिक हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर विशेषाधिक अनुभागबंधस्थान कहना चाहिये तथा पूर्वोक्त उनहत्तर (६९) शुभ प्रकृतियों में से आयुत्रिक (तियंच, मनुष्य, देव आयु) को छोड़कर शेष ६६ प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति में अनुभागबंधस्थान यद्यपि असंख्यात लोकाकाशप्रदेश राशि प्रमाण हैं तथापि वे वक्ष्यमाण स्थानों की अपेक्षा सब से कम हैं। उनसे एक समय कम उत्कृष्टस्थिति में अनभागबंधस्थान विशेषाधिक होते हैं। उनसे भी दो समय कम उत्कृष्टस्थिति में अनुभागबंधस्थान विशेषाधिक होते हैं । इस प्रकार इस विशेषाधिक क्रम से जघन्यस्थिति प्राप्त होने तक कहना चाहिये । इस प्रकार अनन्तरोपनिधा से स्थितिबंधस्थानों में अनुभागबंध की वृद्धिमार्गणा का कथन किया गया । अब परंपरोपनिधा से उसकी वृद्धिमार्गणा का कथन करते हैं
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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