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________________ १४० कर्मप्रकृति पूर्वोक्त · आयुवजित छियासी (८६) अशुभ प्रकृतियों की जघन्य स्थिति से आरंभ करके पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिस्थानों का अतिक्रमण करके जो दूसरा स्थितिस्थान प्राप्त होता है, उसमें अनुभागबंधस्थान जघन्यस्थिति संबंधी अनुभागबंधस्थानों से दुगने होते हैं, उससे फिर उतने ही स्थितिस्थान अतिक्रमण करके जो नया स्थितिस्थान प्राप्त होता है, उसमें अनुभागबंधस्थान दुगुने होते हैं । इस प्रकार पुनः-पुनः उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होने तक कहना चाहिये, तथा-- - पूर्वोक्त आयुवजित छियासठ (६६) शुभ प्रकृतियों को उत्कृष्ट स्थिति से आरंभ करके पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिस्थानों का उल्लंघन करके जो नया अधोवर्ती स्थितिस्थान प्राप्त होता है, उसमें अनुभागबंधस्थान उत्कृष्ट स्थितिस्थान संबंधी अनुभागबंधस्थानों से दुगुन होते हैं । तदनन्तर पुन: उतने ही स्थितिस्थान नीचे उतर कर जो अधोवर्ती नया स्थितिस्थान प्राप्त होता है, उसमें अनुभागबंधस्थान दुगने होते हैं। इसी प्रकार इसी क्रम से जघन्य स्थिति प्राप्त होने तक कहना चाहिये। ये शुभ प्रकृतियों के और अशुभ प्रकृतियों के प्रत्येक के द्विगुणवृद्धिस्थान आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने प्रमाण होते हैं तथा ये द्विगुणवृद्धिस्थान अल्प है । क्योंकि उनका प्रमाण आवलिका के असंख्यातवें भाग मात्र है । उनसे एक द्विगुणवद्धि के अपान्तराल में स्थितिस्थान असंख्यात गुणित होते हैं। क्योंकि उनका प्रमाण पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र होता है, तथा-- ___ चारों आयुकर्मों की जघन्य स्थिति में अनुभागबंधस्थान सब से कम होते हैं। उससे एक समय अधिक जघन्यस्थिति में अनभागबंधस्थान असंख्यात गणित होते हैं। उससे भी द्विसमय अधिक जघन्यस्थिति में अनुभागबंधस्थान असंख्यात गणित होते हैं । इसी प्रकार इसी क्रम से उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होने तक असंख्यात गुणित अनुभागबंधस्थान कहना चाहिये । . इस प्रकार परंपरोपनिधा से स्थितिबंधस्थानों में अनुभागबंध की वृद्धिमार्गणा का कथन जानना चाहिये । . .... . ... अब अनुभागबंधस्थानों को तीव्रता और मंदता का ज्ञान कराने के लिये अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि का निरूपण करते हैं। अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों को अनुकृष्टि घाईणमसुभवण्णरसगंधफासे जहन्न ठिइबंधे। जाणज्झवसाणाई तदेगदेसो य अन्नाणि ॥५७॥ पल्लासंखियभागो जावं बिइयस्स होइ बिइयम्मि । आ उक्कस्सा एवं उवघाए वा वि अणुकड्ढी ॥५॥ शब्दार्थ-पाईणं-धाति प्रकृतियों के, असुभवण्णरसगंधफासे-अशुभ वर्ण, गंध, रस और स्पर्श, जहन्न-जघन्य, ठिइबंधे-स्थितिबंध में, जाण-जानो, अजमवसाणाई-अनुभागबंधाध्यवसायस्थान, तदेगवेसो-उनका एक देश, य-और, अन्नाणि-अन्य (अनुभामबंधाध्यवसायस्थान)।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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