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________________ - पल्लासंखियभाग-पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण, गतुं-उल्लंघन करने के बाद, दुगुणाणि-दुगुने, आउगाणं-आयुकर्म के, तु-तो, थोवाणि-अल्प, पढमबंधे-प्रथम स्थितिबंध में, ठिइयाइ-द्वितीय आदि स्थितिबंध में, असंखगुणियाणि-असंख्यात गुण । गाथार्थ-(पूर्वोक्त वृद्धि) अशुभ प्रकृतियों की अपेक्षा कही गई है और शुभ प्रकृतियों की वृद्धिप्ररूपणा उससे विपरीत जानना चाहिये तथा आयुकर्म के सिवाय सभी शुभाशुभ प्रकृतियों के स्थितिबंधस्थानों में भी वृद्धिप्ररूपणा कषायोदयवत् जानना चाहिये । ___पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिबंधस्थानों का उल्लंघन करने के अनन्तर जो-जो स्थितिबंधस्थान प्राप्त होते हैं, उनमें दुगुने, दुगुनं अनुभागबंधस्थान होते हैं तथा आयुकर्म के प्रथम स्थितिबंध में अनुभागबंधस्थान अल्प होते हैं और द्वितीय आदि स्थानों में असंख्यात गुणित, असंख्यात गुणित अनुभागबंधस्थान होते हैं । विशेषार्थ--सभी अशुभ प्रकृतियों में अर्थात् ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, नरकायु, पंचेन्द्रियजाति को छोड़कर शेष चार जाति, समचतुरस्र को छोड़कर शेष पांच संस्थान, वज्रऋषभनाराच को छोड़कर शेष पांच संहनन, कृष्ण, नील वर्ण, दुरभिगंध, तिक्त, कटु रस, कर्कश, गुरु, रूक्ष, शीत स्पर्श रूप अशुभवर्णादि नवक, नस्कगति, नरकानुपूर्वी, तियंचगति, तिथंचानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, उपघात, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीति, नीचगोत्र और अंतरायपंचक, इन सतासी (८७) पाप प्रकृतियों के अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की वृद्धिमार्गणा पूर्वोक्त अनुभागबधाध्यवसायस्थानों की वृद्धिमार्गणा के समान जानना चाहिये । तथा... 'सुभपगईणं' इत्यादि, शुभ प्रकृतियों की अर्थात् सातावेदनीय, तिर्यंचायु मनुष्यायु, देवायु, देवगति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, शरीरपंचक, संघातपंचक, बंधनपंचदशक, समचतुरस्रसंस्थान, अंगोपांगत्रय, वज्रऋषभनाराचसंहनन, शुभवर्णादि एकादश,' देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, पराघात, अगुरुलघु, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीति, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र, इन उनहत्तर (६९) प्रकृतियों की वृद्धिमार्गणा विपरीत जानना चाहिये । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- उत्कृष्ट कषायोदय होने पर अनुभागबंधाध्यवसायस्थान सबसे कम होते हैं । द्विचरम कषायोदयस्थान पर विशेषाधिक होते हैं, विचरम कषायोदयस्थान पर विशेषाधिक होते हैं, चतुःचरम १. शुभ वर्णादि एकादश के नाम इस प्रकार हैं- वर्ण-श्वेत, पीत, लोहित, गंध-सुरभिगंध, रस-कषाय, आम्ल, मधुर, स्पर्श-लघु, मृदु, स्निग्ध, उष्ण।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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