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________________ बंधनकरण १३५ द्विसामयिक अनुभागबंध के कारणभूत उत्कृष्ट अध्यवसायों म वर्तमान जीव अल्प होते हैं । उनसे चतुःसामयिक अनुभागबंध के कारणभूत जघन्य अर्थात् आदि के अध्यवसायों में जीव असंख्यात गुणित होते हैं और इतने ही जीव उपरिवर्ती चतु:सामयिक अनुभागबंधस्थान के कारणभूत अध्यवसायों में होते हैं । उससे भी यवमध्य कल्प अनुभागबंधस्थानों के कारणभूत अध्यवसायों में वर्तमान जीव असंख्यात गुणित होते हैं । उनसे भी त्रिसामयिक अनुभागबंधस्थानों के निमित्तभूत अध्यवसायों में वर्तमान जीव असंख्यात गुणित होते हैं । उनसे भी आदि के पंचसामयिक, षट्सामयिक और सप्तसामयिक अनुभागबंधस्थानों के कारणभूत अध्यवसायों में वर्तमान जीव असंख्यात गुणित होते हैं और इतने ही उपरिवर्ती पंचसामयिक, षट्सामयिक और सप्तसामयिक अनुभागबंधस्थानों के निमित्तभूत अध्यवसायों में वर्तमान जीव पाये जाते हैं । इससे यवमध्य के उपरिवर्ती समस्त अनुभागबंधस्थानों के निमित्तभूत अध्यवसायों में वर्तमान जीव विशेषाधिक होते हैं । इनसे भी उपरिवर्ती पंचसामयिक पर्यन्त प्राथमिक चतुःसामयिक आदि समस्त अनुभागबंधस्थानों के कारणभूत अध्यवसायों में वर्तमान जीव विशेषाधिक होते हैं । इनसे भी सभी अनुभागबंधस्थानों के कारणभूत अध्यवसायों में वर्तमान जीव विशेषाधिक होते हैं।' ... इस प्रकार अनुभागबंधस्थानों में और उनके कारणभूत अध्यवसायों में जिस प्रकार से जीव पाये जाते हैं, उसकी प्ररूपणा करने के बाद अब एक-एक स्थितिबंधस्थान के अध्यवसाय में नाना जीवों की अपेक्षा कितने अनुभागबंधाध्यवसाय प्राप्त होते हैं, इसका निरूपण करते हैं एक्केक्कम्मि कसायो-दयम्मि लोगा असंखिया होंति । ठिहबंधट्ठाणेसु वि, अमवसाणाण ठाणाणि ॥५२॥ शब्दार्थ-एक्कक्कम्मि-एक-एक, कसायोदयम्मि-कषायोदय में, लोगा-लोक, असंखिया-असंख्यात, होति-होते हैं, ठिइबंधट्ठाणेसु-स्थितिबंधस्थानों में, वि-भी, अजमवसाणाण-अध्यवसायों के, ठाणाणिस्थान । . . ........... . ___गाथार्थ--(स्थितिस्थान हेतुभूत) एक-एक कषायोदय में असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागबंध के अध्यवसायस्थान होते हैं और सर्व स्थितिबंधस्थानों में भी प्रत्येक के ऊपर असंख्यात लोकप्रमाण अध्यवसायस्थान प्राप्त होते हैं । - विशेषार्थ-स्थितिस्थान के कारणभूत एक-एक कषायोदय में नाना जीवों की अपेक्षा कृष्णादि लेश्याजनित परिणामविशेषरूप अनुभागबंधाध्यवसाय असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं । अर्थात् १. उक्त कथन का आशय यह है कि किस प्रकार के अनुभागबंध में वर्तमान जीव अल्पाधिक होते हैं, उसकी विचारणा इस अल्पबहुत्वप्ररूपणा में की गई है । यह अल्पबहुत्व स्पर्शनाकाल के अल्पबहुत्व के समान समझना चाहिये । अर्थात् द्विसामयिक अध्यवसायों में वर्तमान जीव अल्प होते हैं, उससे प्रथम चतुःसामयिक अध्यवसायों में वर्तमान असंख्यातगुणे। इसी प्रकार क्रमशः उत्तरोतर अंतिम चौदहवें स्थान तक कथन करना चाहिये।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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