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________________ असंख्यात लोकाकाशप्रदेशों का जितना प्रमाण होता है, उतने ही होते हैं, क्योंकि शास्त्रों में ऐसा कहा है कि---- 'सकषायोदया हि कृष्णादिलेश्यापरिणामविशेषा अनुभागबंधहेतव:'--कषायोदय से होने वाले कृष्णादि लेश्याओं के परिणामविशेष अनुभागबंध के कारण हैं तथा जघन्यस्थिति से प्रारंभ करके उत्कृष्टस्थिति तक जितने समय होते हैं, उतने ही स्थिति के स्थान होते हैं । वह इस प्रकार जानना चाहिये कि किसी भी कर्म की जो सर्व जघन्यस्थिति होती है, वह एक स्थितिस्थान कहलाता है । वही एक समय अधिक होने पर दूसरा स्थितिस्थान कहलाता है । वही दो समय अधिक होने पर तीसरा स्थितिस्थान कहलाता है । इस प्रकार एक-एक समय की वृद्धि करते हुए उत्कृष्टस्थिति प्राप्त होने तक स्थितिस्थान कहना चाहिये । इस प्रकार ये स्थितिस्थान असंख्यात होते हैं । उन असंख्य स्थितिस्थानों में प्रत्येक एक-एक स्थितिबंधस्थान में तीव्र, तीव्रतर और मंद, मंदतर आदि कषायोदयविशेषरूप अध्यवसायस्थान असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमाण होते हैं । अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों को वृद्धिमार्गणा , अव अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की वृद्धिमार्गणा का . विचार करते हैं । वह दो प्रकार की है-अनन्तरोपनिधा रूप और परंपरोपनिधा रूप। इनमें से पहले अनन्तरोपनिधा की रीति से आगे की गाथा में वृद्धिमार्गणा का कथन करते हैं थोवाणि कसाउदये, अज्झवसाणाणि सव्वडहरम्मि । बिइयाइ विसेसहिया-णि जाव उक्कोसगं ठाणं ॥५३॥ शब्दार्थ-योवाणि-अल्प, कसाउदये-कषायोदय में, अज्मवसाणाणि-अध्यवसाय, सव्वडहरम्मि-सर्व जघन्य, बिइयाइ-दूसरे, विससहियाणि-विशेषाधिक, जाव-तक, उक्कोसगं-उत्कृष्ट, ठाणं-स्थान । गाथार्य-सर्व जघन्य कषायोदय में (अनुभागबंध) अध्यवसायस्थान अल्प होते हैं। उससे आगे दूसरे आदिक कषायोदयस्थानों पर विशेषाधिक-विशेषाधिक उत्कृष्ट कषायोदयस्थान प्राप्त होने तक जानना चाहिये । विशेषार्थ-'सव्वडहरम्मि'-अर्थात् सर्व जघन्य कषायोदय में जो कि स्थितिबंध का कारण है, उसमें कृष्णादि लेश्याओं के परिणामविशेषरूप अनुभागबंधाध्यवसायस्थान अल्प प्राप्त होते हैं, उससे दूसरे, तीसरे आदि कषायोदयस्थान पर उत्तरोत्तर विशेषाधिक-विशेषाधिक तब तक कहना चाहिये, जब तक उत्कृष्ट स्थितिबंध का अध्यवसायस्थान प्राप्त होता है । इसका आशय यह है कि सर्व जघन्य प्रथम कषायोदयस्थान की अपेक्षा दूसरे कषायोदयस्थान पर अनुभागबंधाध्यबसायस्थान. विशेषाधिक होते हैं, उससे भी तीसरे पर विशेषाधिक होते हैं, उससे भी चौथे पर विशेषाधिक होते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट कषायोदयः रूप, स्थितिबधाध्यवसायस्थान तक कहना चाहिये । कहना चाहिये .. . .. ..
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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