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________________ २२३ पर्यवसानप्ररूपमा कडजुम्मा अविभागा, ठाणाणि य कंङगाणि अणुभागे। पज्जवसाणमणंत-गुणाओ उपि न (अ) गंतगुणं ॥४२॥ शब्दार्थ--कडजुम्मा-कृतयुग्म संख्या, अविभागा-अविभाग, ठाणाणि-स्थान, य-और, कंडगाणिकंडक, अणुभागे-अनुभाग में, पज्जवसाणं-पर्यवसान (अंत), अणंतगुणाओ-अनन्तगुणवृद्धि से, उपऊपर, न-नहीं, अणंतगुणं-अनन्तगुणवृद्धि । गाथार्थ-इस अनुभाग के विषय में अविभाग, स्थान और कंडक यह कृतयुग्म राशिरूप हैं । अनन्तगुणवृद्धि के कंडक से ऊपर अनन्तगुणवृद्धि का स्थान नहीं है। इसलिये अनन्तगुणवृद्धि रूप स्थान षट्स्थानकवृद्धि का पर्यवसान अर्थात् अंतिम स्थान है । विशेषार्थ-अनुभाग में अर्थात् अनुभाग के विषय में अविभाग, स्थान और कंडक कृतयुग्म राशि रूप जानना चाहिये ।' इस प्रकार ओजोयुग्मप्ररूपणा जानना चाहिये। ___ अब पर्यवसानप्ररूपणा करते हैं कि अनन्तगुण से अर्थात् अनन्तगुणी वृद्धि वाले कंडक से ऊपर पंचवृद्धयात्मक सभी अनुभागबंधस्थान उल्लंघन करके पुनः अनन्तगुणीवृद्धि वाला अनुभागबंधस्थान प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि वहाँ पर षट्स्थान की समाप्ति हो जाती है । इसलिये वही षट्स्थानक का पर्यवसान-सब से अंतिम स्थान है ।' ___अब आगे की गाथा में अल्पबहुत्वप्ररूपणा करते हैं । अल्पबहुत्वप्ररूपणा अप्पबहुमणंतरओ, असंखगुणियाणणंतगुणमाई। .. तविवरीयमियरमओ, संखेज्जक्खेसु संखगुणं ॥४३॥ शब्दार्थ-अप्पबई-अल्पबहुत्व, अणंतरओ-अनन्तरोपनिषा में, असंखगुणियाण-असंख्यात गुणित, गंसगुण-अनन्तगुणवृद्धि स्थानों को, आई-आदि में, तन्धिवरोध-उससे विपरीत, इयरमो-इत्तर में (परंपरोपनिधा में), संखेज्जक्खेसु-संख्यातगुण और संख्यातभाग वृद्धि में, संखगुणं-संख्यातगुण। - गाथार्थ-अनन्तगणवृद्धि स्थानकों को आदि में करके पश्चानुपूर्वी से अनन्तर-अनन्तर वृद्धि में (अर्थात् अनन्तरोपनिधा में) असंख्यात गुणा अल्पबहुत्व कहना चाहिये और इतर अर्थात् अनन्तरोपनिषा से दूसरी परंपरोपनिया में विपरीत क्रम जानना चाहिये तथा संख्यातगुणवृद्धि एवं संख्यातभागवृद्धि में संख्यातगुण रूप अल्पबहुत्व कहना चाहिये । १. इसका आशय यह है कि अनुभाग के सर्व अविभागों में से समस्त अन्तर वर्गणाओं की संख्या को कम करने के पश्चात् जो अविभाग शेष रहते हैं, उस अनन्त राशि में चार से भाग दें तो शेष में शून्य ही रहता है। इसी प्रकार सभी षट्स्थानों के कंडक भी कृतयुग्मराशिरूप हैं। अनन्तगुणवृद्धि के कथन की विवक्षा छह मूल वृद्धि की अपेक्षा है और यह स्थान उसके कंडक में का अंतिम स्थान जानना चाहिये, अन्यथा उत्तरवृद्धि की अपेक्षा तो सर्वातिम स्थान अनन्तभागाधिक है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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